ब्रिटन के मतदाता आज एक ऐसी रायशुमारी में हिस्सा
लेने जा रहे हैं जिसका अंतरराष्ट्रीय महत्व है। ये रायशुमारी केवल ये तय नहीं
करेगी कि उनका देश यूरोपीय संघ का सदस्य बना रहेगा या नहीं अथवा संघ से अलग होने
की स्थिति में उसका भविष्य क्या होगा। उनके मतदान से निकलने वाले फ़ैसले का पूरी
दुनिया की अर्थव्यवस्था पर भी गहरा असर पड़ेगा। यही नहीं, यूरोप समेत पूरे विश्व
में चल रही सामाजिक उथल-पुथल के लिए भी वह बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यही
वजह है कि पूरी दुनिया की निगाहें इस रायशुमारी के नतीजों पर लगी हुई हैं। दुनिया
भर के नेता परोक्ष रूप से इसमें शामिल हो चुके हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक
ओबामा तो खुलकर यूरोपीय समुदाय में बने रहने की वकालत कर चुके हैं। भारत ने भी यही
इच्छा ज़ाहिर की है कि ब्रिटेन यूरोपीय समुदाय का सदस्य बना रहे।
वास्तव में विश्वव्यापी मंदी और अस्थिरता के इस
दौर में सभी चाहते हैं कि ब्रिटेन अपनी जगह से न हिले। लेकिन ये फ़ैसला किसी और को
नहीं ब्रिटेन के नागरिकों को करना है, जो कि इस मुद्दे पर बुरी तरह बँटे हुए दिख
रहे हैं। तमाम जनमत सर्वेक्षण बता रहे हैं कि मुक़ाबला काँटे का है और ऊँट किसी भी
करवट बैठ सकता है। इसके बावजूद जो मुद्दा सबसे ज़्यादा उभरकर आया है वह
शरणार्थियों का है। पिछले दो साल में शरणार्थियों की जो बाढ़ यूरोप में आई है,
उसने ब्रिटेन के लोगों के मन में असुरक्षा की भावना को इतना मज़बूत कर दिया है कि
वे घृणा तथा हिंसा की राह पर भी चल पड़े हैं। यूरोपीय संघ में ब्रिटेन के बने रहने
के पक्ष में अभियान चला रहीं लेबर
पार्टी की सांसद जो कॉक्स की हत्या ने बता दिया है कि ब्रिटेन का एक वर्ग कितना
उग्र हो चुका है और किस हद तक जाने को तैयार है। लेकिन ये हत्या उन लोगों को एकजुट
होने के लिए भी मजबूर कर सकती है जो चाहते हैं कि ब्रिटेन में नई तरह की कट्टरता
पैदा न हो और जो कल को उग्रवाद का रूप धर ले।
रायशुमारी के शुरूआती दौर में शरणार्थी मुद्दा
इतना हावी नहीं था। यूरोपीय समुदाय में बने रहने के पक्ष और विपक्ष में कई तरह की
दलीलें दी जा रही थीं। इनमें ब्रिटेन की पहचान को कायम रखना सबसे प्रमुख था। ये
मुद्दा यूरोपीय समुदाय के गठन के समय से ही अँग्रेजों के लिए अहम था और एक तबका
इसीलिए हमेशा विरोध में खड़ा रहा। यही वह कारण भी रहा जिसके चलते ब्रिटेन कभी पूरे
मन से समुदाय का हिस्सा भी नहीं बन पाया। इसके अलावा एक मुद्दा ब्रिटेन की अपनी
अंदरूनी आज़ादी और लोकतंत्र का भी चल रहा था। लोगों को लगने लगा था कि बहुत सारे
मसले तो यूरोपीय संसद तय कर रही है और उनका वैसा अख़्तियार नहीं रह गया है जैसा
पहले होता था। लेकिन जब से शरणार्थियों के संकट ने यूरोप में डेरा डाला है, ये
तमाम मुद्दे जैसे पृष्ठभूमि में चले गए हैं और अब बात हो रही है केवल इसकी कि
शरणार्थियों को ब्रिटन आने से कैसे रोका जाए, कैसे नियंत्रित किया जाए। यूरोपीय
समुदाय द्वारा तय किए गए नियम-कायदे उन्हें रास नहीं आ रहे हैं। यही वजह है कि
शरणार्थियों पर हमले भी बढ़ते जा रहे हैं। ज़ाहिर है कि ये एक भावनात्मक मुद्दा बन
चुका है इसीलिए बहुत से लोग इन दलीलों तक को दरकिनार कर दे रहे हैं कि अलग होना
ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। ब्रिटेन का आधे से
ज़्यादा निर्यात यूरोपीय समुदायों के देशों मे ही जाता है और आयात भी वहीं से होता
है। अगर वह अलग हुआ तो इस पर सीधा असर पड़ेगा क्योंकि तब उसे उन्हीं नियमों क तहत
व्यापार कर पड़ेगा जैसा कि अन्य ग़ैर यूरोपीय देश कर रहे हैं। ये एक नुकसानदेह
स्थिति है।
शरणार्थी
समस्या के इस कदर हावी होने जाने की वजह से ही ब्रिटेन के अर्थशास्त्रियों में
घबराहट का माहौल है। प्रचार के शोर में न तो बैंक ऑफ इंग्लैंड द्वारा जारी किए गए
विवरणों पर गौर किया गया और न ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की चेतावनियों को ही
गंभीरता से लिया गया। आख़िरी समय के सर्वेक्षण बताते हैं कि यूरोपीय समुदाय छोड़ने
के पक्ष में राय मज़बूत होती जा रही है। लेकिन दस फ़ीसदी मतदाता अभी भी तय नहीं कर
पाए हैं कि उन्हें किस ओर जाना है। दरअसल, यही दस फ़ीसदी लोग तय करेंगे ब्रिटेन और
यूरोपीय संघ का भविष्य। अगर ये भी शरणार्थी संकट से उपजे असुरक्षाबोध के शिकार हो
गए तब तो निश्चित है कि ब्रिटेन संघ से बाहर होगा।
डॉ. मुकेश कुमार