आम तौर पर किसी पहले पढ़े उपन्यास को दुबारा पढ़ने में एक उलझन ये होती है कि आपको उसकी कथा या चरित्र या घटनाएं या प्रसंग याद आते रहते हैं और उपन्यास के माध्यम से सचाई का जो टुकड़ा पहली बार खोजने का सुख है वह लगभग नहीं मिलता।
यह अकसर उन उपन्यासों के साथ ज़रूर होता है जो कि कथाप्रधान होते हैं। मेरे अनुभव में क्लैसिक भी इसका अपवाद नहीं है।
इधर हार्परकालिंस ने जब अपनी हिंदी की हाल में शुरू हुई सिरीज में हमारी पुरानी मित्र और कई दशकों से लगभग परिवार की सदस्य जैसी ज्योत्सना मिलन के उपन्यास “अ से अस्तु का” का पेपरबैक संस्करण सुरूचि और सुघरता से प्रकाशित किया तो उसे दोबारा पढ़ने का, बीसेक बरस बाद, योग आया। मँझोले आकार की इस कृति को दोबारा पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया। एक कारण तो यह समझ में आया कि वह कथाग्रस्त उपन्यास नहीं है। यह नहीं कि उसमें कुछ होता नहीं है। घरेलू और
सामाजिक-पारिवारिक अत्याचारों से लेकर आध्यात्मिक चिंता आदि सब एक स्त्री को होते हैं। पर उपन्यास आज भी इसलिए पठनीय बना हुआ है कि इसमें घटनाओं, चरित्रों और प्रसंगों की बहुलता नहीं है और वह अपनी ताज़गी भरी संवेदनशील भाषा में सिर्फ़ लिखा ही नहीं गया है, बल्कि गहरे अर्थ में उसी में बसता है। ऐसी भाषा न होती तो ऐसी प्रवाहमयता न होती। अंदर-बाहर, प्रकृति-समाज, संबंधों और व्यथाओं के बीच ऐसी खामोश-सी आवाजाही न होती। रोज़मर्रा की मध्यवर्गीय ज़िंदगी, उसकी मार्मिकताएं-विडंबनाएं, उत्सुकताएं और नाउम्मीदियाँ, प्रृति, मानवीय जीवन और चीज़ों की अपार दुनिया इन सभी को गूँथते हुए जीने-बढ़ने-अहसास करने का सहज अध्यात्म मानो इस उपन्यास का असली मर्म है।
उसकी नायिका अपने दैनंदिन जीवन और कर्म में वे सब व्यथाएं और यंत्रणाएं झेलती-सहती हैं जो हमारे यहाँ एक मध्यवर्गीय स्त्री की नियति होती है। पर वह उनसे अनाक्रांत रहती है-उसका प्रतिरोध किसी दारुण नाटकीयता का रूप नहीं लेता। अपने स्कूल के दिनों से ही वह ऐसे प्रश्न पूछती और बेसब्री से उनके उत्तर खोजती है जो एक तरह से चरक प्रश्न है। हिंदी उपन्यास ऐसे बहुनिंदित “आध्यात्मिक” प्रश्नों से बचता रहा है। पर अस्तु की यह अथक जिज्ञासा उसके जीवन को उसकी सच्ची स्मृति में देर तक टिकने नहीं वाली आभा देती है। जब उसका एक स्कूली मास्टर उसकी एक जिज्ञासा का शमन नहीं कर पाता तो वह अपनी आजी से पूछती है....”आप ये बताइए कि पहले पेड़ या पहले बीज।“ आजी से उत्तर में यह सुनकर कि...”इसमें पेले-पीछे की बात ही क्या” वह इसे उत्तर नहीं मानती और तब आजी कहती है...”सब कुछ हमेशा से है और हमेशा से रहेगा” वह उसके विरुद्ध बहस करती है, लेकिन आजी का मत अटल रहता है...”सब कुछ आदिकाल से था और अनादिकाल तक रहेगा।“
आजी के अनुसार “स्त्री पर्याय से मोक्ष जा ही नहीं सकते।“ इसरार करने पर वह यह कार्ण बताती है-“अब नहीं ज मानती तो सुन। इसलिए कि औरत अंतिम कपड़ा नहीं फेंक सकती।“ अस्तु की प्रतिक्रिया ग़ौरतलब है-“एक कपड़े के फिंकने न फिंकने पर ही टिका है तुम्हारा मोक्ष तो फिर ऐसे मोक्ष का क्या फायदा! इस तरह से सोचने पर उसने पाया कि मोक्ष का कोई विशेष फायदा नहीं था, बल्कि उसका सबसे बड़ा नुकसान तो यही था कि एक बार मुक्त हो जाने के बाद कुछ और तो हुआ ही नहीं जा सकता। इससे तो अस्तु का अस्तु रहना ही क्या बुरा है।“
घर इस उपन्यास का केंद्रीय रूपक है। “हवेली या महल खुद तो फिर से खड़े नहीं हो सकते, किसी दूसरी इमारत को भी ये अपनी जगह खड़ा नहीं होने देते। और कैसा भी घर जिनके पास हो ही नहीं वे! फुटपाथ, ठेला, पुलिया, दुकानों के पटिए, सड़क किनारे खड़े पेड़ की छाया जहाँ कहीं वे बेठें, उठें, लेटें, खाएँ, सोएं वे तमाम जगहें उनके घर होती हैं, उतनी ही देर के लिए। अस्तु को तो एक ऐसा घर चाहिए,जो जब न चाहे न हो। जिसे खींचतान कर कभी भी बड़ा-छोटा कर सकें। ऐसे एक घर की खोज में वह बचपन की एक दोपहर घर से निकल पड़ी थी और तब से अभी तक लौटी ही नहीं।“
आसमान को उपन्यास का प्रतिरूपक कहा जा सकता है। उपन्यास के बिल्कुल अंत में यह अंश आता है-“सब कुछ के ख़त्म हो जाने के बाद भी आसमान तो बचा ही रहता था। मगर आसमान ने कभी उपद्रव मचाया हो उसे याद नहीं उसने कभी कोई बाधा भी नहीं दी न किसी सोच में, न किसी साँस में। ....आसमान से तो उसकी दोस्ती तब से है जब वह उसे “आसमान” कहकर जानती नहीं थी। उन दिनों पहली फुरसत में जा बैठती थी आसमान से गप्प लड़ाने, चाहे वह समय बरसात का हो चाहे जाड़े का, चाहे गरमी की रातों का। आसमान से दोस्ती के दिनों में बादल से, चील से सूरज से, चांद से, हवा से सबसे दोस्ती थी। इनमें से कोई भी कभी भी गप्प में शामिल हो जाता था।“ एक मार्मिक दृश्य उपन्यास के शुरू में कोवलम के तट पर है-“कि जब वह पहुँच जाएगी आसमान में तो वहाँ आसमान होगा ही नहीं, कि क्षितिज नीचे धँसा हुआ होगा, कि सूरज को वह आसमान से ढूँढ़ ही नहीं पाएगी.....”।
दरअसल घर, आसमान,पेड़, घरेलू सामान, गलिया-सीढ़ियाँ,सहपाठी,माँ-आजी आदि सब दिपते-भभकते-बुझते और फिर रोशन होते चरित्र हैं। ज्योत्सना कवियत्री हैं और उनका गद्य अच्छे अर्थ में कवि का गद्य है जो बहुत ही अल्पलक्षित बातों को दर्ज़ करता है। पेड़ों का यह वर्णन देखने योग्य है-“शिरीष में बारहों महीने कितने फूल रहते हैं। पर कित्ते चुप्पे, कि बहुतों को ते पता भी नहीं चल पाता कि पेड़ में फूल भी हैं। गरमी के दिन हो तो जेकरांडा, गुलमुहर, केशिया,अमलतास सब मिलकर कैसी धूम मचाते हैं। कितना फूलते हैं और फिर साल भर गूँगे, हरे मौन में गर्क। पीपल की तो पूछो ही मत। हवा बिल्कुल न चल रही हो तब भी पत्ते हिलते रहते हैं। जैसे अपने आप डोल रहे हों। एक-एक पत्ता अलग से डोलता हुआ।”
अगर रूपात्मक ढंग से सोचें, जिसका कि हमारी हिंदी में इन दिनों चलन नहीं है, तो यह तय करना कठिन है कि हिंदी के औपन्यासिक परिसर में यह उपन्यास शिरीष के फूलों की तरह अलक्षित खिला हुआ है या कि एक पीपल है, जिसके पत्ते होने के सुख-दुख से बिना किसी हवा के भी लगातार डोल रहे हैं।