हिंदी में विचार-विमर्श कितना सुस्त और पिछड़ा हुआ है इसका अंदाज़ा आप किसी सेमिनार, परिचर्चा में जाकर लगा सकते हैं। चिंतन और दर्शन के स्तर पर नवीनता की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी तलाशने जैसा है। मगर जानकारी के स्तर पर भी मानो सुई दस-बीस साल पीछे अटकी हुई होती है।
पिछले दिनों महात्मा गाँधी अँतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में पाँच दिन तक चले सेमिनार में यही सब देखने को मिला। हिंदी समय के नाम से हुए इस सेमिनार में साहित्य, मीडिया, सांप्रदायिकता, दलित, आदिवासी, महिला आदि तमाम विषयों पर चर्चाएं हुईँ मगर सब जगह तोता रटंत दिखा दिया। समस्याओं को ठीक उसी ढंग से देखने का नज़रिया और रचनात्मक सुझावों का बंजरपन। मसलन, सांप्रदायिकताकी चीर-फाड़ तो बहुत हुई मगर सब कुछ अतीत को ध्यान में रखकर। इसी तरह मीडिया के चरित्र को समझने की कवायद भी बेहद सतही थी। एक-दो वक्ता तो विषय पर बोले ही नहीं। विजय बहादुर सिंह की चिंता तो विश्वविद्यालय की राजनीति ज़्यादा थी और उनका अध्यक्षीय वक्तव्य उसी पर केंद्रित रहा।
कई वक्ता ऐसे आयोजनों का इस्तेमाल अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हमले करने के लिए करते हैं तो कई पुराना हिसाब चुकता करने के लिए। विचार-विमर्श के ये मंच कई बार आंदोलन की ज़मीन बन जाते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है मगर कम से कम विचार को नारे के रूप में या नारे को विचार के तौर पर तो पेश न किया जाए। विचारों को अगर समग्रता में नहीं रखा जाए तो वे भ्रम पैदा करते हैं।
हैरत की बात ये रही कि ऐसे समय में जब पूरा विश्व मंदी की मार से बिलबिला रहा है तो हिंदी समय में इसकी हल्की सी ध्वनि भी नहीं सुनाई दी। होना तो ये चाहिए था कि एक बार सारे वक्ता अपने पन्नों को अलटते-पलटते और देखते कि तमाम विचारणीय विषयों पर मंदी का कैसा असर पड़ने जा रहा है। जब इस पैमाने पर बेरोज़गारी फैलेगी तो समस्याओं का चरित्र भी बदलेगा और उनके समाधान की चुनौतियाँ भी। मगर ऐसा किसी ने किया नहीं।
दरअसल, अब सब ये महसूस करने लगे हैं कि ये सेमिनार सरकारी धन पर सैर करने के ज़रिए ज़्यादा बन गए हैं और कोई भी इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहा। ये विमर्श का कर्मकाँड और आवंटित राशि को ठिकाने लगाने का उपाय हैं। इसीलिए न तो वक्ताओं से ज़्यादा उम्मीद की जाती है और न ही वक्ता किसी ख़ास तैयारी के आते हैं। ऐसे में अगर हिंदी समय में विचारों की कमी है तो ये लाज़िमी ही है।
अभियान
न्यूज़ चैनलों के कंटेंट को लेकर हर तरफ चिंताएं ज़ाहिर की जा रही हैं। आम दर्शक, बुद्धिजीवी, अदालतें, सरकार और यहाँ तक कि बहुत सारे पत्रकार भी चाहते हैं कि कुछ किया जाए। मगर किया क्या जाए? कौन बनाए कंटेंट कोड और कौन उसे लागू करवाए? क्या आत्म नियमन काम कर सकता है और क्या कोई और तरीका है न्यूज़ चैनलों को दुरूस्त करने का? आप इस बारे में क्या सोचते हैं या अगर आपके पास कोई और सुझाव हो तो हमें लिखिए। हम इन सारे सुझावों को संबंधित लोगों, संस्थाओं के पास भेजेंगे।