सिर्फ साक्षर बनाने से कुछ नहीं होगा - मुंबई में बाशीनाका के पास रहने वाली 11 साल की चेन्या इसी इलाके के बाकी लोगों की तरह ही एक मजदूर परिवार से है।
जहां चेन्या का बड़ा भाई पटेलनगर की एक होटल में काम करने जाता है वहीं चेन्या पढ़ने के लिए अपने घर से 3 किलोमीटर दूर ‘नेशनल केमीकल फरटीलाइजर कालोनी’ के एक निगम स्कूल में जाती है।
मगर इसी साल ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक’ पारित होने के बाद वह भी प्राइवेट स्कूल जा सकती है। विधेयक में चेन्या जैसी बच्चियों के लिए 25 प्रतिशत कोटा जो तय किया गया है।
फिर भी ऐसा क्यों है कि चेन्या के पिता विठ्ठल भाई बहुत खुश नहीं दिखते?
विठ्ठल भाई 10 साल पहले रोजीरोटी की तलाश में शोलापुर जिले के गुलबरका गांव से मुंबई चले आए थे।
विठ्ठल भाई मानते हैं कि अगर चेन्या प्राइवेट स्कूल में जाए भी तो अमीर बच्चों की अमीरी देखकर वहां खुलकर नहीं पढ़ पाएगी।
वह चाहते हैं कि निगम के स्कूलों में ही प्राइवेट स्कूल जैसी ही पढ़ाई हो और बच्चों को बाहरवीं तक शिक्षा की गारंटी भी।
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इससे गरीब बच्चे न केवल बेहतर बल्कि आत्मविश्वास और ईज्जतदार तरीके से भी पढ़ सकेंगे। ऐसी आपत्तियां विठ्ठल भाई जैसे गरीब लोगों की ही नहीं हैं, बच्चों के हकों से जुड़े कई शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं भी यही राय है।
यह सभी ‘शिक्षा के अधिकार विधेयक’ को बहुत सारी खामियों से भरा विधेयक मानते हैं।
क्राई यान ‘चाईल्ड राईटस् एण्ड यू’ का मानना है कि 6 साल से नीचे और 15 से 18 साल के बच्चों को छोड़ देने से विधेयक अपना मकसद खो देता है।
6 साल से नीचे ही 6 करोड़ 70 लाख बच्चे हैं, जिन्हें 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गांरटी दी थी। जबकि इस विधेयक में उनका हक़ कट हो गया है।
यह तो सभी बच्चों को शिक्षा के हक देने की बजाय पूर्ण शिक्षा की गारंटी में कटौती करने वाला विधेयक है। आमतौर पर बच्चे 3 साल में स्कूल जाने लगते हैं मगर बड़ी हैरत की बात है की शिक्षा का हक उनके लिए नहीं होगा।
दूसरी तरफ यह विधेयक तकनीकी और उच्च शिक्षा लेने की योग्यता और अवसर नहीं देता है।
क्योंकि ज्यादातर तकनीकी शिक्षा बारहवीं के बाद ही की जाती है मगर विधेयक उन्हें आठवीं तक ही शिक्षा देने की बात कह रहा है।
मौजूदा हालातों के हिसाब से आठवीं तक की पढ़ाई बच्चों के विकास के लिए काफी नहीं मानी जाती। ऐसे में विधेयक को पढ़कर लगता है कि सरकार की दिलचस्पी जैसे शिक्षा की बजाय साक्षरता बढ़ाने तक हैं।
इसी तरह सरकार की कई योजनाओं के अर्थ अलग-अलग हैं। जिसमें से भी बहुत सी तो सिर्फ साक्षरता बढ़ाने के लिए ही चल रही हैं।
सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार से लेकर राज्य द्वारा शिक्षा पर मुनासिब खर्च किए जाने जैसी बातों को विधेयक के भीतर नहीं रखा गया है।
इसके अलावा शारारिक और मानसिक तौर से विकलांग बच्चों के हकों के लिए लड़ने वाले कई कार्यकर्ता भी इस विधेयक से संतुष्ट नहीं हैं।
क्योंकि विधेयक में एक तो ‘चिल्ड्रन विद डिसेबिलिटी’ शब्द में संशोधन नहीं किया गया है और दूसरा ऐसे बच्चों के हक दिलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है।
इस विधेयक में वित्तीय जवाबदारियों के मद्देनजर केन्द्र और राज्य सरकारों की भूमिकाओं के बारे में साफ-साफ नहीं किया गया हैं। शिक्षा के बुनियादी हक के हनन पर यह विधेयक उल्टा अदालत जाने से रोकता है।
क्योंकि इसमें साफ कहा गया है कि अगर कोई शिकायत हो तो ‘नेशनल कमीशन फार दा प्रोटेक्शन आफ चाइल्ड राईटस’ के पास जाए। जबकि इसके पास कोई न्यायिक अधिकार ही नहीं है।
क्राई इन तथ्यों पर रौशनी डाल रहा है कि भारत की 53 प्रतिशत बस्तियों में ही स्कूल हैं। यहां 40 करोड़ बच्चों में से आधे स्कूल नहीं जा पाते हैं।
इसके बावजूद पिछले बजट में बच्चों के हकों से जुड़े कई शब्दों से लेकर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘मिड डे मिल’ जैसे योजनाओं को अपेक्षित जगह नहीं दी गई।
कुल बजट में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी तो की गई मगर बच्चों की शिक्षा पर महज 10 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हुई। याने आमतौर पर बढ़ोतरी दर में से बच्चों की शिक्षा में 15 प्रतिशत की कमी हुई।
वह भी ऐसे हालातों में जब भारत 2015 तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकता है।
क्राई का मानना है कि आबादी का इतना बड़ा हिस्सा मतदान में दूर रहने के चलते राजनैतिक तौर से उपेछित रहता है।
इसलिए संस्था ने बच्चों के हकों से जुड़े सवालों को राजनैतिक एजेण्डों से जोड़ने के लिए समय-समय पर जन अभियान चलाया है।
इस कड़ी में उसने ‘सबको शिक्षा समान शिक्षा’ नाम से एक राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ा दिया है। इसी तरह लोकसभा चुनाव के समय भी क्राई ने बच्चों के हक को मुद्दा बनाया था।
इसके लिए चार्टर तैयार करते हुए उम्मीदवारों और जनता से बच्चों की जीत के लिए वोट मांगे थे। इस दौरान संस्था ने 18 साल से नीचे के सभी किशोरों को बच्चा मानकर उन्हें बच्चों के सभी हक दिए जाने की मांग को बुलंद किया था।
जिससे बच्चों पर असर डालने वाली सभी नीतियों और कानूनों में मौजूद असंतुलन को दूर किया जा सके। इसी तरह समाज में जो असंतुलन है, वही तो स्कूल की चारदीवारी में हैं।
कुल मिलाकर नीति, कानून और समाज से स्कूल में घुसने वाले उन कारणों को तलाशना होगा जो ऊंच-नीच की भावना को बढ़ाते हैं।
अगर समाज में समानता लानी ही है तो सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि इसकी शुरूआत शिक्षा और बच्चों से ही की जाए।
शिरीष खरे ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।संपर्क: shirish2410@gmail.com