सियासतदानों का कोई भरोसा नहीं कि मतदाताओं को खुश करने के लिए वे कब क्या बोल दें, क्या वादा कर दें और कब वादे को जुमला बताकर मुकर जाएं। उन्हें सचाई से कोई लेना-देना नहीं होता। लक्ष्य बस एक होता है कि कैसे वोटर को खुश रखा जाए।
अब जम्मू काश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती के इस बयान को ही ले लीजिए कि अगर उन्हें पता होता कि सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे गए तीन मिलिटेंट में एक बुरहान वानी है तो वे उसे बचा लेंती। वे ये नहीं बता रहीं कि कैसे बचा लेंती?
अजीब बात है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह जम्मू-काश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती से ये नहीं पूछ रहे कि आप हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहानी वानी को बचा लेने की बात क्यों कर रही हैं और अगर आपको पता होता तो कैसे बचा लेतीं? ये सवाल पीएमओ भी नहीं पूछ रहा, बीजेपी और आरएसएस तो पूछ ही नहीं रहे।
क्या किसी मुख्यमंत्री के पास किसी आतंकवादी को बचाने के अधिकार होते हैं? क्या वह सुरक्षा बलों से कह सकता है कि फलाँ आतंकवादी को मत मारो? ज़रा सोचिए कि अगर ऐसा होने लगे तो इसके नतीजे क्या होंगे? सुरक्षा बलों को हर बार मुख्यमंत्री को सूचित करना पड़ेगा कि मुठभेड की जगह फलाँ-फलाँ आतंकवादी मौजूद हैं, बताइए किनको मारना-पकड़ना है और किन्हें जाने देना है।
ज़ाहिर है कि मेहबूबा का बयान एक बहुत बड़ा मज़ाक है। वे कश्मीरियों को बेवकूफ़ बना रही हैं। वे उनसे ऐसी बात कह रही हैं जो कल को उनके और केंद्र सरकार के लिए गले का फंदा बन सकती है।
अगर मेहबूबा समझ रही है कि उनके इस बचकाने बयान से कश्मीरी अवाम बहल जाएंगे तो ये उनकी भूल है। वह जानता है कि दिल्ली के रहम-ओ-करम पर बीजेपी के साथ चल रही सरकार की हैसियत क्या है और वह क्या कर सकती है, क्या नहीं।
कश्मीरी मेहबूबा के इस वादे को भी गंभीरता से नहीं लेंगे कि किसी की शहादत बेकार नहीं जाएगी। सुरक्षा बलों की गोलियों के शिकार हुए लोगों को वे शहीद मान रही हैं चलिए ठीक है, मगर उस शहादत को कामयाब बनाने का उनके पास क्या नुस्ख़ा है ये भी तो बताएं। क्या उनको लगता है कि इससे अलगाववाद की माँग पूरी होगी या क्या दिल्ली दबाव में आकर कोई राजनीतिक समाधान खोजने के लिए तैयार हो जाएगी?
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दरअसल, मेहबूबा को समझना होगा कि इस तरह के झूठे वादों से वे तेजी से खिसक रहे जनाधार को रोक नहीं सकेंगी। उनकी अपनी साख ख़त्म हो चुकी है और लोग उन्हें दिल्ली की कठपुतली मानकर चल रहे हैं। ऐसे मे उन्हें कुछ ठोस करके दिखाना होगा।
ये ठोस क्या हो सकता है? अव्वल तो उन्हें केंद्र सरकार पर राजनीतिक समाधान के लिए दबाव डालना होगा। उन्हें केंद्र से कहना होगा कि सेना के दम पर कश्मीर को काबू में रखने की रणनीति फेल हो चुकी है और बेहतर होगा कि वह सभी पक्षों के साथ बातचीत का दौर शुरू करे।
दूसरा क़दम बेहाल घाटी को राहत पहुंचाने के लिए बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा और तुरंत उस पर अमल है। जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा घाटी शांत नहीं होगी। हाँ ये ज़रूर है कि किसी दिन उनकी पार्टी में ही बगावत हो जाए और वे न घर की रहें न घाट की।