14 अप्रैल को देश भर के अख़बार बाबा साहब भीमराव आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने वाले, उनके पद चिन्हों का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा करने वाले और उनके सपनों का भारत बनाने का संकल्प लेने वाले विज्ञापनों से अटे पड़े थे। टीवी चैनलों में भी आंबेडकर जयंती से जुड़े कार्यक्रमों और जाने-माने लोगों द्वारा दिए गए बयानों की भरमार थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ये स्वीकारोक्त सुर्ख़ी बनी हुई थी कि वे बाबा साहब की वजह से ही प्रधानमंत्री बन सके। ये बात और है कि उनकी राजनीति आंबेडकर के सोच के विरूद्ध है और इसे दलितों को लुभाने की कोशिश के रूप में ही देखा गया। पहली बार मीडिया ने आंबेडकर के जीवन और संघर्ष पर कार्यक्रमों की झड़ी भी लगा दी। डिजिटल मीडिया का भी यही हाल था। यहाँ आंबेडकर के राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर आलोचनाओं के स्वर अधिक और ज़्यादा तीखे थे।
यानी हर तरफ आंबेडकर ही आंबेडकर थे, मगर दिलचस्प बात रही कि इस पर किसी को कोई हैरत नहीं हो रही थी। मानो सबको पता हो कि देश की राजनीति का एजेंडा और मतदाताओं का मिजाज़ बदल चुका है और अगर आंबेडकर को नहीं पूजा गया तो नैया पार नहीं लगने वाली। इसमें किसी को संदेह नहीं कि राजनीतिक दलों का आंबेडकर प्रेम आने वाली लड़ाईयों को ध्यान में रखकर ही उमड़ा है। देश की फिज़ा बदल चुकी है। ख़ास तौर पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार के हमले के बाद से राजनीतिक समीकरणों ने एकदम से पलटा खाया है। संघ परिवार के दलित एवं अल्पसंख्यक विरोध ने बीजेपी विरोधी ताक़तों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया है। इससे नया समीकरण बन रहा है जो भारतीय राजनीति के चरित्र को हमेशा के लिए बदल सकता है।
बदल रही राजनीति के लक्षण पाँच राज्यों के चुनाव में भी सुनाई पड़ रहे है, मगर इसकी गूँज सबसे ज़्यादा सुनाई देगी उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में। अगले साल की शुरूआत में होने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफायनल माना जा रहा है, इसलिए सभी पार्टियाँ, ख़ास तौर पर बीजेपी वहाँ अपना सब कुछ झोंकने की तैयारी मे है। लेकिन ख़ास बात ये है कि चुनाव के केंद्र में दलित राजनीति आ गई है। एक तो मायावती की वापसी के संकेतों की वजह से और दूसरे बीजेपी के दलित विरोधी रवैये के उजागर होने के कारण। बीजेपी की पूरी रणनीति खुद को दलितों का असली हितैषी बताकर वोटों का गणित अपने पक्ष में करने का है।
बहरहाल, साफ़ है कि भारतीय राजनीति में दलित युग शुरू हो चुका है। राजनीतिक दलों ने उसके हिसाब से खुद को ढालना भी शुरू कर दिया है। अब ये काम वे कितना दिल से करेंगे और कितना दिखावे के लिए, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी किस तरह से होती है। संघर्ष की धार और विस्तार की दिशा इससे भी तय होगी कि आंबेडकरवादियों और वाम दलों के बीच आपसी समझ कितनी गाढ़ी होती है। फिलहाल दोनों “जय भीम और लाल सलाम” के जुड़वा नारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए प्रतिबद्ध होते दिखलाई दे रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में वे संयुक्त मोर्चे बनकर सक्रिय होने लगे हैं।
सवाल उठता है कि क्या भारतीय मीडिया इस राजनीतिक बदलाव को देख और दिखा पा रहा है? क्या मीडिया के चाल-चरित्र को देखकर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारतीय मानस किस तरह की राजनीति को गढ़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है? क्या उसके द्वारा प्रस्तुत की जा रही सामग्री में इसके दर्शन होते हैं और वह उस राजनीति के ख़िलाफ़ खड़ा है या समर्थन में?
ये चंद ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढ़ने के लिए शायद बहुत मशक्कत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। शोध वगैरा से कुछ ठोस आँकड़े मिल सकते हैं मगर उनका रुझान पहले से सबको पता है और जिन्हें नहीं पता वे जानते जा रहे हैं। पिछले तीन महीनों में उसने जिस तरह से बड़ी घटनाओं का कवरेज किया उसी से ज़ाहिर हो जाता है कि मोटे तौर पर वह दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों के साथ नहीं है। कम से कम उसका बड़ा हिस्सा तो नहीं ही है। इसे परखने के लिए हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की मौत और उसके बाद के घटनाक्रम को ही ले लीजिए। रोहित की मौत के पहले तक मीडिया ने उस पर और उसके साथियों पर किसी तरह का तवज्जो नहीं दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वहाँ जातिवाद से प्रेरित होकर अपनी भगवा राजनीति चला रही थी, मगर उसकी रिपोर्ट मीडिया में कहीं नहीं थी। मौत के बाद जब बावेला मचना शुरू हुआ तो मीडिया ने इसका कवरेज तो शुरू कर दिया मगर उसका रवैया दोहरेपन से भरा हुआ था। एक तरफ तो वह रोहित जैसे प्रतिभाशाली छात्र की मौत पर आँसू बहा रहा था, दूसरी ओर उसी को कठघरे में भी खड़ा कर रहा था। उसने इस पर नहीं के बराबर ज़ोर दिया कि उस पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने किस तरह की ज़्यादतियाँ ढाईं और केंद्रीय मंत्रियों की उसकी मौत में क्या भूमिका थी। कई चैनल तो रोहित को ही कसूरवाद ठहराने में लगे थे। उसके द्वारा याकूब मेनन की फाँसी के विरोध के आधार पर उसे देशद्रोही ठहराने लगे, जो कि केंद्रीय मंत्र बंडारू दत्तात्रेय पहले ही कर चुके थे।
बेशर्मी की इंतहा तो तब हो गई जब मीडिया ने रोहित के दलित होने पर ही सवाल खड़े कर दिए और उसकी माँ के निजी जीवन की त्रासदी को स्रार्वजनिक तमाशा बना डाला। यानी रोहित को एक नहीं कई बार मारा गया। रोहित की मौत के विरोध में हुए प्रदर्शनों का कवरेज भी पक्षपातपूर्ण रहा। दिल्ली, मुंबई, नागपुर, हैदराबाद आदि शहरों में विशाल प्रदर्शन हुए मगर या तो उन्हें दिखाया ही नहीं गया या फिर उन्हें मामूली बताया गया। प्रदर्शनों में शामिल होने वालों की संख्या को कम करने जैसे हथकंडे तक उसने आज़माए। रोहित की मौत के बाद आंदोलनकारियों और उनका समर्थन देने वाले प्राध्यपकों पर दमनचक्र चलाया गया। उनके मारा-पीटा गया, गिरफ़्तार किया गया। मीडिया में इसे भी बहुत कम कवरेज मिला।
रोहित वेमुला के मामले ने मीडिया के जातिवादी चेहरे को और भी तरह से उधेड़कर रख दिया। शिक्षा संस्थानों में हो रहे भेदभाव की ख़बरों को वह कोई महत्व नहीं देता था, मगर रोहित की आत्महत्या से ये सच सामने आया कि ये तो बहुत आम बात है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही रोहित के पहले नौ छात्र आत्महत्या कर चुके थे। उन आत्महत्याओं की कोई ख़बर कभी मीडिया में सुर्ख़ी नहीं बनी। अगर एबीवीपी और दो केंद्रीय मंत्रियों की भूमिका इसमें न होती तो रोहित की मौत से उठी चीख भी मीडिया के नक्कारखाने में दबकर रह जाती।
कितने ही विश्वविद्यालय हैं जहाँ रोहित वेमुला जातिवादी भेदभाव के शिकार होकर या तो दम तोड़ रहे हैं या पढ़ाई ही छोड़कर चले जाते हैं। उनके साथ क्लास रूमों में भेदभाव होता है, छात्रावासों में भेदभाव होता है। उनका तरह-तरह से अपमान किया जाता है, प्रताड़ित किया जाता है। आईआईटी ने 71 छात्रों को तो अयोग्य ठहराकर बाहर ही कर दिया। छात्रों ही नहीं दलित, आदिवासी एवं पिछड़ी जातियों से आने वाले शिक्षकों, प्राध्यापकों को भी निशाना बनाया जाता है। दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान तक में ये सब धड़ल्ले से चल रहा है। प्रशासन से उन्हें किसी तरह का संरक्षण नहीं मिलता उल्टे उनकी भूमिका ऊँची जातियों के पक्ष मे ही खड़े होने की होती है।
-डॉ. मुकेश कुमार-
यानी हर तरफ आंबेडकर ही आंबेडकर थे, मगर दिलचस्प बात रही कि इस पर किसी को कोई हैरत नहीं हो रही थी। मानो सबको पता हो कि देश की राजनीति का एजेंडा और मतदाताओं का मिजाज़ बदल चुका है और अगर आंबेडकर को नहीं पूजा गया तो नैया पार नहीं लगने वाली। इसमें किसी को संदेह नहीं कि राजनीतिक दलों का आंबेडकर प्रेम आने वाली लड़ाईयों को ध्यान में रखकर ही उमड़ा है। देश की फिज़ा बदल चुकी है। ख़ास तौर पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार के हमले के बाद से राजनीतिक समीकरणों ने एकदम से पलटा खाया है। संघ परिवार के दलित एवं अल्पसंख्यक विरोध ने बीजेपी विरोधी ताक़तों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया है। इससे नया समीकरण बन रहा है जो भारतीय राजनीति के चरित्र को हमेशा के लिए बदल सकता है।
बदल रही राजनीति के लक्षण पाँच राज्यों के चुनाव में भी सुनाई पड़ रहे है, मगर इसकी गूँज सबसे ज़्यादा सुनाई देगी उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में। अगले साल की शुरूआत में होने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफायनल माना जा रहा है, इसलिए सभी पार्टियाँ, ख़ास तौर पर बीजेपी वहाँ अपना सब कुछ झोंकने की तैयारी मे है। लेकिन ख़ास बात ये है कि चुनाव के केंद्र में दलित राजनीति आ गई है। एक तो मायावती की वापसी के संकेतों की वजह से और दूसरे बीजेपी के दलित विरोधी रवैये के उजागर होने के कारण। बीजेपी की पूरी रणनीति खुद को दलितों का असली हितैषी बताकर वोटों का गणित अपने पक्ष में करने का है।
बहरहाल, साफ़ है कि भारतीय राजनीति में दलित युग शुरू हो चुका है। राजनीतिक दलों ने उसके हिसाब से खुद को ढालना भी शुरू कर दिया है। अब ये काम वे कितना दिल से करेंगे और कितना दिखावे के लिए, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी किस तरह से होती है। संघर्ष की धार और विस्तार की दिशा इससे भी तय होगी कि आंबेडकरवादियों और वाम दलों के बीच आपसी समझ कितनी गाढ़ी होती है। फिलहाल दोनों “जय भीम और लाल सलाम” के जुड़वा नारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए प्रतिबद्ध होते दिखलाई दे रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में वे संयुक्त मोर्चे बनकर सक्रिय होने लगे हैं।
सवाल उठता है कि क्या भारतीय मीडिया इस राजनीतिक बदलाव को देख और दिखा पा रहा है? क्या मीडिया के चाल-चरित्र को देखकर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारतीय मानस किस तरह की राजनीति को गढ़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है? क्या उसके द्वारा प्रस्तुत की जा रही सामग्री में इसके दर्शन होते हैं और वह उस राजनीति के ख़िलाफ़ खड़ा है या समर्थन में?
ये चंद ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढ़ने के लिए शायद बहुत मशक्कत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। शोध वगैरा से कुछ ठोस आँकड़े मिल सकते हैं मगर उनका रुझान पहले से सबको पता है और जिन्हें नहीं पता वे जानते जा रहे हैं। पिछले तीन महीनों में उसने जिस तरह से बड़ी घटनाओं का कवरेज किया उसी से ज़ाहिर हो जाता है कि मोटे तौर पर वह दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों के साथ नहीं है। कम से कम उसका बड़ा हिस्सा तो नहीं ही है। इसे परखने के लिए हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की मौत और उसके बाद के घटनाक्रम को ही ले लीजिए। रोहित की मौत के पहले तक मीडिया ने उस पर और उसके साथियों पर किसी तरह का तवज्जो नहीं दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वहाँ जातिवाद से प्रेरित होकर अपनी भगवा राजनीति चला रही थी, मगर उसकी रिपोर्ट मीडिया में कहीं नहीं थी। मौत के बाद जब बावेला मचना शुरू हुआ तो मीडिया ने इसका कवरेज तो शुरू कर दिया मगर उसका रवैया दोहरेपन से भरा हुआ था। एक तरफ तो वह रोहित जैसे प्रतिभाशाली छात्र की मौत पर आँसू बहा रहा था, दूसरी ओर उसी को कठघरे में भी खड़ा कर रहा था। उसने इस पर नहीं के बराबर ज़ोर दिया कि उस पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने किस तरह की ज़्यादतियाँ ढाईं और केंद्रीय मंत्रियों की उसकी मौत में क्या भूमिका थी। कई चैनल तो रोहित को ही कसूरवाद ठहराने में लगे थे। उसके द्वारा याकूब मेनन की फाँसी के विरोध के आधार पर उसे देशद्रोही ठहराने लगे, जो कि केंद्रीय मंत्र बंडारू दत्तात्रेय पहले ही कर चुके थे।
बेशर्मी की इंतहा तो तब हो गई जब मीडिया ने रोहित के दलित होने पर ही सवाल खड़े कर दिए और उसकी माँ के निजी जीवन की त्रासदी को स्रार्वजनिक तमाशा बना डाला। यानी रोहित को एक नहीं कई बार मारा गया। रोहित की मौत के विरोध में हुए प्रदर्शनों का कवरेज भी पक्षपातपूर्ण रहा। दिल्ली, मुंबई, नागपुर, हैदराबाद आदि शहरों में विशाल प्रदर्शन हुए मगर या तो उन्हें दिखाया ही नहीं गया या फिर उन्हें मामूली बताया गया। प्रदर्शनों में शामिल होने वालों की संख्या को कम करने जैसे हथकंडे तक उसने आज़माए। रोहित की मौत के बाद आंदोलनकारियों और उनका समर्थन देने वाले प्राध्यपकों पर दमनचक्र चलाया गया। उनके मारा-पीटा गया, गिरफ़्तार किया गया। मीडिया में इसे भी बहुत कम कवरेज मिला।
रोहित वेमुला के मामले ने मीडिया के जातिवादी चेहरे को और भी तरह से उधेड़कर रख दिया। शिक्षा संस्थानों में हो रहे भेदभाव की ख़बरों को वह कोई महत्व नहीं देता था, मगर रोहित की आत्महत्या से ये सच सामने आया कि ये तो बहुत आम बात है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही रोहित के पहले नौ छात्र आत्महत्या कर चुके थे। उन आत्महत्याओं की कोई ख़बर कभी मीडिया में सुर्ख़ी नहीं बनी। अगर एबीवीपी और दो केंद्रीय मंत्रियों की भूमिका इसमें न होती तो रोहित की मौत से उठी चीख भी मीडिया के नक्कारखाने में दबकर रह जाती।
कितने ही विश्वविद्यालय हैं जहाँ रोहित वेमुला जातिवादी भेदभाव के शिकार होकर या तो दम तोड़ रहे हैं या पढ़ाई ही छोड़कर चले जाते हैं। उनके साथ क्लास रूमों में भेदभाव होता है, छात्रावासों में भेदभाव होता है। उनका तरह-तरह से अपमान किया जाता है, प्रताड़ित किया जाता है। आईआईटी ने 71 छात्रों को तो अयोग्य ठहराकर बाहर ही कर दिया। छात्रों ही नहीं दलित, आदिवासी एवं पिछड़ी जातियों से आने वाले शिक्षकों, प्राध्यापकों को भी निशाना बनाया जाता है। दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान तक में ये सब धड़ल्ले से चल रहा है। प्रशासन से उन्हें किसी तरह का संरक्षण नहीं मिलता उल्टे उनकी भूमिका ऊँची जातियों के पक्ष मे ही खड़े होने की होती है।
ऐसा नहीं है कि शिक्षा संस्थानों में ही जातिगत भेदभाव एवं घृणा का नाला बह रहा है। सच तो ये है कि पूरा समाज इसकी सड़ाँध से बजबजा रहा है। मगर “नोज़ फॉर न्यूज़” को अच्छे पत्रकार की प्रमुख पहचान मानने वाले मीडिया की नाक तक ये दुर्गंध पहुँचती ही नहीं। वह ऊँची जातियों, उँचे वर्गों और उँचे लोगों से बाहर निकलता ही नहीं है। उसे दिखलाई नहीं देता कि समाज में हर स्तर पर और गाँव से लेकर शहर तक जातिवाद से जनित हिंसा किस कदर पसरी हुई है। इसकी कोई रिपोर्टिंग मीडिया में देखने को नहीं मिलती, अगर मिलती भी है तो बहुत मामूली। यहाँ तक कि देश की राजधानी से सटे प्रदेश हरियाणा में दलित अत्याचार की अंतहीन त्रासदियाँ घटती रहती हैं और वह मुँह फेर बैठा रहता है। महाराष्ट्र में खैरलाँजी की घटना संयोगवश सामने आती है, उसमें मीडिया की कोई सार्थक भूमिका नहीं होती।
दलितों पर अत्याचार की किसी भी घटना में मीडिया भूमिका की पड़ताल कर लीजिए, आप पाएंगे कि उसका रवैया दलित विरोधी रहा है। बिहार के दर्ज़नों जातीय नरसंहार तो इसकी सबसे बड़ी बानगी हैं। बिहार का मीडिया पूरी तरह से अगड़ों का, अगड़ों के द्वारा अगड़ों के लिए रहा है। कमज़ोर कही जाने वाली जातियों के साथ कभी उसने खड़ा होने का इच्छा या प्रतिबद्धता नहीं दिखलाई। इसका असर राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया पर भी देखा जा सकता है। बिहार के अधिकांश मीडिया संस्थानों ने बड़े दलित नरसंहारों में बेहद ही पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ तक कि रणवीर सेना जैसे कुख्यात जातिवादी संगठन का पक्ष लिया और उसे महिमामंडित भी किया। इन नरसंहारों के गुनहगारों तक का पक्ष उसने लिया और उन्हें छोड़े जाने पर खुशियाँ प्रकट कीं।
ऐसा नहीं है कि मीडिया अचानक जातिवादी हो गया। सचाई ये है कि उसका चरित्र अगर उच्च वर्ग की तरफ था तो ऊँची जातियाँ का ही उसमें बोलबाला भी था। वैसे भारत में वर्ग और वर्ण में ज़्यादा अंतर भी नहीं है। ऊँची जातियाँ मतलब ऊँचा आर्थिक वर्ग भी। हम पाते हैं कि हिंदी के पहले अख़बार उदंत मार्तंड से लेकर आज तक मीडिया पर ऊँची जातियों का वर्चस्व है और जाहिर है कि वे अपने तमाम आग्रहों, दुराग्रहों के साथ अपने हित में उसे चला रही हैं। आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी मीडिया का रूख़ उसी तरह से अगड़ी जातियों के पक्ष में झुका हुआ था। पूना पैक्ट के पहले आंबेडकर के विरूद्ध मीडिया का अभियान देखने लायक था। उसने सवर्ण हिंदुओं को आंबेडकर के विरूद्ध लामबंद करने में मह्तवपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी तरह संविधान निर्माण और फिर हिंदू कोड बिल को लागू करने के सवाल पर भी वह ऊँची जातियों के पक्ष में ही खड़ा था।
दरअसल, मीडिया की आंतरिक संरचना ही कुछ ऐसी है कि वह ऊँची जातियों के स्वार्थों की अवहेलना नहीं करता। मीडिया का स्वामित्व पूरी तरह से ऊँची जातियों के हाथों में है इसलिए ये स्वाभाविक ही है कि उसकी निष्ठा उन्हीं के प्रति होगी। फिर मीडिया संस्थानों में काम करने वाले भी ऊँची जातियों के ही होते हैं और वे कितने भी उदार क्यों न हो जाएं उनकी मानसिक बनावट उन्हें सवर्णों के प्रति वफादार बनाए रखती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है आरक्षण। आरक्षण जातियों के टकराव के केंद्र में है और जब भी इसे जुड़ा विवाद उठता है मीडिया आरक्षण विरोधियों के पक्ष में खड़ा हो जाता है। वह नाना प्रकार के तर्क देकर ये साबित करने की कोशिश करता है कि आरक्षण देश को बरबाद कर रहा है। आरक्षण के संबंध में उसके दुराग्रह इतने प्रबल और आक्रामक हैं कि अकसर ऐंकर को आरक्षण समर्थकों से झगड़ते हुए देखा जा सकता है। वे ये साबित करने में जुट जाते हैं कि देश की बदहाली की एकमात्र वजह आरक्षण है मानो जब देश में आरक्षण लागू नहीं हुआ था, तो चारों तरफ खुशहाली थी, अमन-चैन था। वे इस बात का ज़िक्र भी नहीं करते हैं कि ऊँची जातियाँ सैकड़ों साल से अघोषित आरक्षण समाज पर थोपकर लाभान्वित हो रही हैं।
ढाई दशक पहले जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं थीं तब भी उसका व्यवहार दलित और पिछड़ा विरोधी था और इतने वर्षों बाद भी यही साबित करता रहता है कि वह बिल्कुल भी नहीं बदला है। इस कालखंड में राजनीति बदल गई है और समाज में भी व्यापक परिवर्तन आए हैं मगर वो अपने पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के साथ वहीं ठहरा हुआ है। वो इस बदलाव को देख तो रहा है मगर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा।
अख़बारों और टीवी चैनलों पर आरक्षण के विरोध में चलने वाले आंदोलनों के कवरेज़ को ग़ौर से देखें तो ये साफ़ हो जाता है। आरक्षण के समर्थकों का ये कहना ग़लत नहीं है कि आरक्षण विरोधी आंदोलन मीडिया की देन होते हैं, उन्हें मीडिया शुरू करता है, बढ़ावा देता है और फिर चलाता भी है। वह आरक्षण लागू करने वाले या उसका समर्थन करने वाले नेताओं के ख़िलाफ़ निंदा अभियान चलाने लगता है। वीपी सिंह और अर्जुन सिंह के साथ उसने यही किया, उन्हें खलनायक बना दिया। पिछड़े तथा दलित वर्ग के नेताओं के साथ उसका नफ़रत भरा व्यवहार तो कभी भी देखा जा सकता है। अंग्रेज़ी मीडिया अकसर इस अभियान में इसमें नेतृत्व करता है।
अव्वल तो घटनाओं की रिपोर्टिंग ही पक्षपातपूर्ण होती है। चुनिंदा (Selective )रिपोर्टिंग के तहत आरक्षण के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, जबकि आरक्षण समर्थकों को बिल्कुल गायब कर दिया जाता है। सौ-दो सौ आरक्षण विरोधियों की रैली को महारैली बताना बहुत आम है। सुबह से शाम तक बार-बार वे उन्हें लाइव दिखाएंगे। विरोधियों के इंटरव्यू दिखाकर ये बताने की कोशिश करेंगे कि वे कितने उत्तेजित हैं और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई में जान की बाज़ी तक लगाने को तैयार हैं। वे बार-बार मेरिट का सवाल उठाते हैं और परोक्ष रूप से खुद को जीनियस और दलित-ओबीसी के छात्रों को फिसड्डी ठहराते हैं। वे ऐसे–ऐसे कुतर्क देते हैं जिनकी तुलना ग़ालियों से ही की जा सकती है। उनके मुताबिक आरक्षण की वज़ह से शिक्षा का स्तर, ज्ञान का स्तर नीचे गिर रहा है। विदेशों में भारत की प्रतिष्ठा ख़त्म हो रही है। आरक्षण की वज़ह से ही प्रतिभा पलायन हो रहा है वगैरा-वगैरा। टीवी के पत्रकारों की हालत तो उनके इस नज़रिए को और भी स्पष्ट करती है। आरक्षण विरोधी आंदोलन को कवर करने वाला हर रिपोर्टर आंदोलनकारी में तब्दील हो जाता है। उन्हें ऊपर से लाइन मिली होती है कि आंदोलनकारियों के पक्ष में माहौल बनाना है और वे खुद भी अपने जातीय तथा वर्गीय आग्रहों के वशीभूत होकर इस पवित्र कर्म में संलग्न हो जाते हैं। वे ढूँढ़-ढूँढ़कर ऐसे लोगों से बात करते हैं जो आरक्षण के विरोध में बोलें। उन्हें पक्ष में बोलने वाला कोई मिलता ही नहीं।
आरक्षण विरोधी आंदोलन को हवा देने के लिए चैनलों के पास और भी अस्त्र-शस्त्र होते हैं। टीवी पर होने वाली बहसों के विषय ऐसे चुने जाते हैं जिनसे कुल मिलाकर यही संदेश निकले कि आरक्षण देश के हित में नहीं है और डाक्टर जो कर रहे हैं वो सौ फ़ीसदी सही है। इन बहसों में हिस्सा लेने के लिए वही लोग बुलाए जाते हैं जो आरक्षण के विरोधी हों और अगर समर्थक भी हों तो बहुत मुखर न हों। इन्हें भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित एंकर बोलने का मौका कम ही देते हैं। इन चैनल चर्चाओं का मुख्य उद्देश्य आरक्षण व्यवस्था को समाज विराधी और देश विरोधी साबित करना होता है। चर्चाओं में आरक्षण की खामियों की विस्तार से बात की जाती है और उससे हुए फायदे को अनदेखा कर दिया जाता। एक विशेष रुझान लिए सवालों जैसे क्या आरक्षण से मेरिट की अनदेखी नहीं होती? पर वोट करने को कहा जाता है। इसी तरह इन चैनलों की वेबसाइट्स देखेंगे तो पाएंगे कि वहाँ भी आरक्षण के विरोध में नफ़रत की गटरगंगा बहाई जा रही है।
मीडिया में आरक्षण के कवरेज का दूसरा पहलू होता है उसमें व्याप्त असत्य और अर्धसत्य। यहाँ तक कि झूठी ख़बरें देने में भी उन्हें कोई एतराज़ नहीं होता। किसी की आंदोलनकारियों की पिटाई या किसी की मौत की अफवाह फैलाकर भावनात्मक ज्वार पैदा करने का हथकंडा तो बेहद आम है। इसका तीसरा पहलू मीडिया में दलितों के प्रति घृणा और आरक्षित जातियों के उपहास का है। उसकी नज़र में पिछड़ा वर्ग के छात्र एवं कर्मचारी नकलचोर और नालायक होते हैं और सवर्ण काबिल। मसलन ऐसे ही एक आंदोलन के दौरान दिल्ली के एक हिंदी अख़बार ने पहले पन्ने पर ख़बर छापी कि अगर क्रिकेट में आरक्षण होता तो द्रविड़, तेंदुलकर और धोनी को टीम में जगह ही नहीं मिल पाती। अव्वल तो उस विद्वान पत्रकार को शिक्षा और खेल में आरक्षण का फर्क नहीं पता। दूसरे जातिगत श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त ये महानुभाव सोच भी नहीं पाते कि अगर पिछड़ों को भी समान अवसर मिलें तो इनसे भी बड़े खिलाड़ी देश को मिल सकते हैं। भद्रजनों के लिए आरक्षित इस खेल में ऐसे बहुत से खिलाड़ी आगे आए भी हैं। न्यूज़ चैनलों में एंकर और रिपोर्टर भले ही अपनी तरफ से अपनी भावनाओं का इज़हार नहीं कर रहे थे मगर वे आरक्षण विरोधियों को टीवी पर अपनी घृणा दिखाने का पूरा अवसर देते थे। उनमें पिछड़ों के लिए कोई हमदर्दी नहीं दिखाई देती थी। इस मामले में वे संवेदनशून्य या उदासीन हो जाते थे।
जैसा कि ज़ाहिर है मीडिया में ऊँची जातियों के वर्चस्व का इतिहास पुराना है लेकिन हाल में नव ब्राम्हणवाद के उभार ने उसे नए सिरे से मजबूत कर दिया है। इसकी शुरुआत करीब ढाई दशक पहले शुरू हुए नव उदारवाद और भूमंडलीकरण से हुई। नवउदारवाद और भूमंडलीकरण की जुगलबंदी अपने साथ पुनरूत्थानवाद लेकर आयी और पूरी दुनिया में पीछे लौटने की होड़ शुरू हो गई। इसी पुनर्त्थानवाद की कोख में जो ब्राम्हणवाद थोड़ा सा दुबककर पड़ा हुआ था उसे भी सिर उठाकर चलने का मौका मिल गया। वह लाल-पीले-भगवा वस्त्रों में तिलक लगाकर सामने आ गया और मीडिया में आसन जमाकर बैठ गया। यानी नवपूँजीवाद की छत्रछाया में नवब्राम्हणवाद भी पनपने लगा और मीडिया इसमें उसका सहायक-वाहक दोनों बन गया।
अगर मीडिया के कंटेंट का विश्लेषण करें तो ये बात और भी समझ में आने लगती है। टीवी चैनलों में ऐसी सामग्री भर गई है जो कि वास्तव में ब्राम्हणवादी अवधारणाओं को पुष्ट करती है। इसकी वजह से पुरोहित वर्ग पूरे मीडिया पर हावी हो गया है और यही नहीं, मीडिया के ज़रिए पूरे समाज पर भी उसके प्रभाव में ज़बर्दस्त वृद्धि होती जा रही है। वैसे तो मीडिया के बारे में अकसर ये कहा ही जाता है कि वह तरह-तरह के सामाजिक पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में है और इसमें कथित “उच्च जातिवादी” या सवर्णवादी आग्रह-दुराग्रह बहुत ज़्यादा हावी हो गए हैं। मगर अब बात केवल आग्रहों तक सीमित नहीं रह गई है। ऐसा लगता है कि समूचा मीडिया ही मानो सुनियोजित ढंग से ब्राम्हणवाद की पुनर्स्थापना में जुटा हुआ है। मीडिया ने विभिन्न बहानों से ब्राम्हणवादी हथकंडों को अपना लिया है और प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से उन्हें फैलाने में लगा हुआ है।
शुरूआत उन चैनलों से हुई जो खुद को धार्मिक और आध्यात्मिक कहते हैं। आते ही वे कमर कसकर ऐसे तमाम तरह के कार्यक्रम पेश करने में जुट गए जो सीधे तौर पर समाज में पुरोहित वर्ग की अहमियत को कायम करते थे। चाहे वे बाबाओं के प्रवचन हों, जगह-जगह होने वाले धार्मिक किस्म के आयोजन हों, भजन-पूजन की विधियाँ बताने वाले कार्यक्रम हों या फिर ब्राम्हणों और ब्राम्हणवाद को महिमामंडित करने वाली कथा-कहानियों का वाचन या प्रतिबिंबन हो। इस तरह के कंटेंट ने जहाँ समाज में ब्राम्हण वर्ग को नए सिरे से प्रतिष्ठित करना शुरू कर दिया, वहीं पुरोहिती के लिए ढेर सारे अवसर पैदा कर दिए।
धार्मिक कहे जाने वाले चैनलों ने अगर ब्राम्हणवाद को फिर से खड़े होने के लिए नई ज़मीन तैयार की तो न्यूज़ चैनलों ने उसे विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा प्रदान करने का काम किया। ख़बरों के साथ विश्वास का भाव जुड़ा होता है क्योंकि आभासी ही सही उसमें सत्यता की गुंज़ाइश होती है। ब्राम्हणवाद और कर्मकांड पर न्यूज़ चैनलों ने सत्यता की मुहर लगाकर उसे प्रामाणिकता प्रदान कर दी। किसी को लंका मिलने लगी तो कोई स्वर्ग की सीढी ढूँढ़ लाया। सब चैनलों पर ज्योतिष बैठ गए और उन शास्त्रों के हवाले से भविष्य बताने लगे जो कि ब्राम्हणों के लिए अस्त्र-शस्त्र का काम करते रहे हैं। इन्हीं से जुड़ गए तंत्र-मंत्र और हवन-पूजन। विघ्न विनाश के लिए उपायों का तो मतलब ही है ब्राम्हणों की शरण में जाना क्योंकि इस तरह के ज्ञान पर उन्हीं की बपौती है और वही विभिन्न क्रियाएं करवाने में दक्ष भी हैं। न्यूज़ चैनलों ने हर खगोलीय घटना को शास्त्रों के विधि-विधान से जोड़ दिया और उसी ब्राम्हणवादी चश्मे से देखना-दिखाना शुरू कर दिया। इसी उपक्रम में जुड़ गए तमाम तीज-त्यौहार। हर उत्सव को धार्मिक रंग देना और उसे मनाने के लिए कर्मकांडों पर ज़ोर देना न्यूज़ चैनलों में परंपरा सी बन गई है।
टीवी चैनलों के लिए ये नवब्राम्हणवाद बहुत फलदायी साबित हो रहा है। नवब्राम्हणवादी कंटेंट सबसे ज़्यादा टीआरपी तो देते ही हैं, धन भी दे रहे हैं। चैनलों पर भविष्य बताने के लिए जुटने वाली ज्योतिषियों की जमात बाकायदा चैनलों को मोटी फीस अदा करती है। तरह-तरह के बाबा तो ख़ैर पैसे देकर ही स्लाट खरीदते हैं और खुद को बेचते हैं। उनके कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण चैनल श्रद्धावश नहीं करते और न ही जनहित के लिए करते हैं। वह पूरी तरह से पेड होता है। टेलीविज़न की बदौलत सुपर योगा गुरू बने ग्यारह सौ करोड़ का कारोबार करने वाले रामदेव तो ख़ैर खुद ही चैनलों के मालिक हैं। कई बाबाओं ने विभिन्न चैनलों में पूँजी (काली पूँजी) लगा रखी है, जिसके बदले में वे मुफ़्त प्रचार पाते हैं। साफ है कि पूँजी ने टेलीविज़न को नवब्राम्हणवादी बना दिया है।
एक तीसरा बड़ा कारण और जो कि फिलहाल सबसे शक्तिशाली भी दिखलाई दे रहा है, वह है उक्त पुनरुत्थानवादी, ब्राम्हणवादी शक्तियों का केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ होना। ये हिंदुत्ववादी राजनीति मूल रूप से ब्राम्हणवाद का विस्तार ही है। ज़ाहिर है कि वर्ण व्यवस्था के पक्षधर और अपने जातीय हितों के पोषक-रक्षक इस राजनीतिक परिवर्तन से उत्साहित हैं और व्यवस्था के हर पक्ष पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए सक्रिय हैं। ये वर्ग आरक्षण को ख़त्म करना चाहता है और ऐसा हर उपाय करना चाहता है ताकि वह अपनी “औकात” में रहे। मीडिया में भी ऐसे तत्वों की कमी नहीं है, बल्कि संघ परिवार अरसे से मीडिया में अपने लोगों को प्लांट करने की रणनीति पर काम करता रहा है इसलिए वे हर जगह काबिज़ हैं। बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में मीडिया स्वामियों ने ऐसे लोगों को ही सर्वोच्च पद सौंप दिए हैं क्योंकि इसी तरह सत्ता को खुश करके लाभ उठाए जा सकते हैं।
कुल मिलाकर वर्तमान मीडिया हिंदुत्व तथा ब्राम्हणवाद के जहाज पर सवार है और ऐसे में दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं के लिए ये बड़ा बुरा वक्त है। लेकिन अच्छी बात ये है कि इन जातियों-वर्गों में भी नई चेतना पैदा हुई है और वे संगठित होकर संघर्ष की राह पर हैं। ये कोई मामूली बात नहीं है क्योंकि इसने राजनीतिक गँठजोड़ करके हिंदुत्ववादियों में खौफ़ पैदा कर दिया है। रोहित वेमुला की मौत तो इस मामले में एक टर्निंग पॉंइट साबित हुई है। इसी की घबराहट है कि भागवत के बयान के बाद आरक्षण बनाए रखने का आश्वासन प्रधानमंत्री को कई बार देना पड़ा और वे तथा उनकी पार्टी आंबेडकर का मंत्रजाप करने में जुट गई है।
लेकिन मूल सवाल ये है कि मीडिया का क्या होगा? अगर हिंदुत्व की राजनीति मज़बूत होती गई तब तो तय है कि उसका रुख़ कमज़ोर जातियों एवं वर्गों के प्रति कठोर होता जाएगा, लेकिन अगर मोदी और उनकी पार्टी सत्ता से फिसलती भी है तो भी उसमें किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती। उसका चरित्र तो तब तक वही रहेगा जब तक स्वामित्व में परिवर्तन नहीं होगा और मीडियाकर्मियों मे सभी सामाजिक वर्गों की हिस्सेदारी आबादी के हिसाब से सुनिश्चित नहीं की जाएगी। फिलहाल तो इसका एकमात्र रास्ता आरक्षण ही दिखता है, मगर इसकी संभावना बहुत कम है कि मीडिया का प्रायवेट सेक्टर इसे स्वीकार कर लेगा। हालाँकि ये फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है, मगर यदि राजनीति की धारा उलट गई तो वह इस मीडिया को भी उलट सकती है। जय भीम और लाल सलाम के गँठजोड़ में ये संभावना छिपी हुई है।
-डॉ. मुकेश कुमार-