नामवर जैसा कम्यूनिकेटर दूसरा नहीं


डॉ. नामवर सिंह पर अक्सर ये आरोप लगाया जाता है कि वे लिखते तो हैं नहीं, केवल बोलते हैं। ये काफ़ी हद तक सही भी है और खुद नामवर जी इसे स्वीकार कर चुके हैं, बल्कि अपने पचहत्तरवें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने सार्वजनिक रूप से ये भी कह दिया था कि उनके बोले को ही उनका रचनात्मक योगदान समझ लिया जाए। उसके बाद से टीका-टिप्पणियाँ थोड़ा कम तो हुईं मगर बंद नहीं हुईँ। दरअसल, नामवर जी के प्रशंसकों की तो बहुत बड़ी संख्या है ही मगर उनसे असहमत और अंसतुष्ट लोगों की भी एक बड़ी जमात है। उनकी नाराज़गी की कई वाज़िब वजहें भी हो सकती हैं, बल्कि होंगी ही, लेकिन ये भी एक सचाई है कि नामवर जी के योगदान को नकारने या उसे छोटा करने का एक अभियान भी चलता रहा है। इस मुहिम में ईर्ष्या-द्वेष की मात्रा भी बहुत रही है। बहुत से आलोचकों को नामवर जी की अखिल भारतीय प्रतिष्ठा एवं लोकप्रियता पचती नहीं है, इसलिए वे उनमें खोट निकालने में लगे रहते हैं। कभी उनके कम लिखने को लेकर सवाल उठाते रहते हैं तो कभी उनकी कथित अवसरवादिता, मठाधीशी को बहाना बनाते हैं। उन्हें हाल-हाल तक ये भ्रम रहा है कि ऐसा करके वे नामवर जी को बौना साबित कर देंगे और लोग और नहीं तो कम से कम उन्हें लेखक मानना तो बंद कर ही देंगे। लेकिन वे कभी कामयाब नहीं हुए उल्टे नामवर जी का कद बढ़ता ही रहा। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे हिंदी साहित्य के तो केंद्रीय व्यक्तित्व हैं ही, समूचे भारतीय साहित्य जगत में भी उनका एक विशेष स्थान है।

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लेकिन यहाँ मेरा उद्देश्य हिंदी या भारतीय साहित्य जगत में नामवर जी का स्थान निर्धारण करना नहीं है जो कि न तो मेरे वश में है और न ही मेरे करने से होने वाली है। मैं तो ये बताना चाहता था कि जिसे नामवर जी की सबसे बड़ी कमज़ोरी बताया जाता रहा है वही उनका अमोघ अस्त्र है। वे अगर आज नब्बे वर्ष की उम्र में भी शिखर पर विराजमान हैं तो उसमें उनकी वाक्शक्ति का सबसे बड़ा योगदान है। सब जानते हैं कि अब वे भूल जाते हैं या विषयांतर कर देते हैं, मगर फिर भी उन्हें सुनने पहुंच जाते हैं। बोलने की कला, महफिल लूट लेने का हुनर उनके पास है और ये बहुत पहले से है। बहुत से लोगों को लग सकता है कि जब वे प्रतिष्ठित हो गए तब लोगों ने उन्हें सुनना शुरू कर दिया, मगर ऐसा है नहीं। बनारस में उनकी कक्षाओं में छात्रों की संख्या के जो किस्से मशहूर हैं वे इस बात का सबूत है कि मामला उल्टा है। आम तौर पर हिंदी की कक्षाओं में छात्रों की उपस्थिति बहुत कम रहती है और वे उसे कतई गंभीरता से नहीं लेते। मगर यदि नामवर जी के व्याख्यान सुनने के लिए दूसरी कक्षाओं के छात्र भी दरवाज़ों-खिड़कियों तक पर जमा हो जाते थे। इसी से समझा जा सकता है कि उनकी वाणी में किस तरह की चुंबकीय शक्ति रही होगी। मैंने तो ख़ैर उन्हें बहुत बाद में सुना और उस जादू की कल्पना ही कर सकता हूँ और बाद के अनुभवों के आधार पर ही कुछ कह सकता हूँ। शायद सन् 1991 में मैंने उन्हें पहली बार भोपाल में सुना था और सुनकर मुग्ध हो गया था। फिर तो जब भी उन्हें सुनने का मौक़ा मिला, कभी नहीं चूका। हर बार मैंने यही देखा कि नामवर जी को सुनने लोग इकट्ठे होते हैं और उनका व्याख्यान पूरा होते ही चले भी जाते हैं। यानी किसी भी दूसरे वक्ता में उनकी रुचि या तो नहीं होती थी या फिर बहुत कम होती थी। सेमिनार के जिस सत्र में नामवर जी होंगे, उसका हिट होना तय रहता था। कुछ लोग कह सकते हैं कि भीड़े तो मदारी और प्रवचन करने वाले भी खूब जुटा लेतें हैं, मगर नामवर जी मजमा जुटाने वाले वक्ता नहीं थे या हैं। उनके व्याख्यानों में ज्ञान और स्वतंत्र चिंतन की जो धारा बहती है, लोगों को वही मोहती है। उनकी शैली भी उबाऊ पंडिताऊ नहीं होती, संदर्भ रटे रटाए नहीं लगते, वे सहज ही आते चले जाते हैं। कोई शेर, कबीर का दोहा या तुलसी की चौपाई अनायास ही आकर दिलचस्पी को बढ़ा देती है। साथ ही साथ वे श्रोताओं में जिज्ञासा जगाते चलते हैं। एक सस्पेंस होता है जो खुलता जाता है। लोगों को लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण आने वाला है और वह आता भी था, जिससे सुनने वाला मंत्रमुग्ध होता जाता है। उसे लगता है कि ज्ञान की एक सहज नदी बही जा रही है और वह उसमें डुबकियाँ लगा रहा है।



उपरोक्त बातें बहुत से लोगों को अतिशयोक्ति लग सकती हैं, मगर कम से कम मेरा अनुभव यही है।  दूरदर्शन के कार्यक्रम सुबह सवेरे (1998-2004) के दौरान लगभग चार साल तक उनसे नियमित संवाद होता रहा और उसमें भी मैंने कुछ ऐसा ही पाया। कृतियों के चयन से लेकर रिकॉर्डिंग के पूर्व चर्चा और फिर रिकॉर्डिंग के दौरान मैंने हमेशा से महसूस किया कि उनकी हर पंक्ति को ध्यान से सुनना बहुत ज़रूरी है क्योंकि उसके हर शब्द का महत्व है। यहाँ तक कि सामान्य गपशप में भी वे महत्वपूर्ण बातें कहते हैं और जिन्हें अगर आप चौकन्ने न हुए तो ग्रहण करने से चूक सकते हैं। शायद यही वजह है कि सुबह सवेरे की साहित्य चर्चा को इस पैमाने पर देखा और सराहा गया। निश्चय ही दर्शकों को उनकी टिप्पणियों में इसीलिए रस मिलता होगा।

इस बात पर अकसर शोक और रोष प्रकट किया जाता है कि मीडिया, ख़ास तौर पर टेलीविज़न चैनल साहित्य जगत को अनदेखा करते हैं। ये सचाई भी है कि साहित्य के प्रति उनका रवैया न केवल उपेक्षा का है बल्कि शत्रुता का रूप धर चुका है। साहित्य जगत से जुड़ी गतिविधियों पर ध्यान ही न देना उनकी अघोषित नीति बन चुकी है। उन्हें इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि साहित्य की दुनिया में कौन सी नई प्रवृत्तियाँ चल रही हैं या क्या कुछ नया रचा जा रहा है। उन्हें केवल बेस्ट सेलर से मतलब है और मतलब है सेलेब्रिटी लेखकों से जो कि ज़ाहिर है कि अँग्रेज़ी में ज्यादा हैं। यही नहीं, वे साहित्य और साहित्यकारों का मज़ाक उड़ाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते। साहित्य जगत की किसी भी नकारात्मक स्थिति के लिए रचनाओं और रचनाकारों को दोष देना एक फैशन सा बन चुका है। उन्होंने ये धारणा बना ली है कि साहित्य-वाहित्य कोई नहीं देखता और बिकाऊ तो वह है ही नहीं। अब अगर किसी चीज़ के दर्शक नहीं होंगे और उसमें मुनाफ़े की गुंज़ाइश भी नहीं होगी तो वह टीवी के परदे पर आएगी ही क्यों? इसीलिए किसी भी चैनल पर साहित्य या किताबों पर आधारित कोई कार्यक्रम नहीं दिखता। एक अकेला दूरदर्शन है जो एक थका सा कार्यक्रम प्रस्तुत करता है, जिसका कहीं कोई नोटिस भी नहीं लिया जाता। साहित्य जगत में ही उसकी चर्चा नहीं होती।

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टीवी चैनलों में साहित्य की इस निराशाजनक मगर यथार्थपरक स्थिति की ये तस्वीर रखने का मक़सद ये है कि ज़रा ये देखा जाए कि आख़िर वह कौन सी बात थी कि करीब डेढ़ दशक पहले हफ्ते में एक बार आने वाला दस से पंद्रह मिनट का एक छोटा सा कार्यक्रम इतनी धूम क्यों मचाता था। सुबह सवेरे में हर शुक्रवार को होने वाली साहित्य चर्चा में ऐसा क्या था कि उसे समूचा साहित्य जगत ध्यान से देखता था, उसकी चर्चा करता था। बल्कि इसे साहित्य जगत तक सीमित कर देना भी ग़लत होगा, क्योंकि हर दिन बोरों में भरकर आने वाली चिट्ठियाँ बताती थीं कि आम दर्शक भी उसे उतना ही पसंद करते थे। इस छोटे से खंड की लोकप्रियता को देखकर ही हास्य-व्यंग्य के कवि अशोक चक्रधर ने एक सभा में कहा था कि जितना काम साहित्य के लिए किसी और ने नहीं किया होगा उतना मुकेश ने कर दिया है। मेरे लिए ये बड़े सम्मान की बात थी, लेकिन वास्तव में ये छोटी सी साहित्य चर्चा द्वारा अर्जित की गई प्रतिष्ठा थी जो उनके मुख से बोल रही थी। स्पष्ट कर दूँ कि सुबह सवेरे की साहित्य चर्चा मे हमने अशोक जी कोई रचना कभी नहीं ली, बल्कि उनका ज़िक्र भी कभी नहीं किया।

मेरे खयाल से सुबह सवेरे की साहित्य चर्चा की कामयाबी की मुख्य वजह नामवर जी ही थे। उनके अलावा कोई दूसरा होता तो शायद उसे इतने दर्शक न मिलते। ये सही है कि सुबह सवेरे का पूरा कार्यक्रम का संयोजन ही इस तरह का था कि उसे टेलीविज़नधारी हर वर्ग के लोग देखना पंसद करते थे। उसमें सुरूचिपूर्ण मनोरंजन और जानकारियों का बहुत अच्छा मिश्रण था, इसलिए वह भारतीय टेलीविज़न के इतिहास का सबसे हिट ब्रेकफास्ट शो है। लेकिन उसे हिट बनाने में और साहित्य जगत  तक पहुँचाने में नामवर जी का भी विशेष योगदान था। दरअसल, साहित्य जगत में नामवर जी की जो लोकप्रियता और प्रतिष्ठा थी वह भी इस कार्यक्रम से जुड़ गई थी। फिर नामवर जी की किसी रचना के बारे में टिप्पणी एक तरह से उसके अच्छे या बुरा होने के बारे में प्रमाणिक कथन माना जाता था, इसलिए स्वाभाविक था कि हर रचनाकार उत्सुकता के साथ ये जानने के लिए कार्यक्रम देखता था कि देखें नामवर जी किस कृति या लेखक के बारे में क्या कहते हैं। चूँकि नामवर जी के बारे में ये भी विख्यात है कि वे पता नहीं कब किसके बारे में क्या बोल जाएं इसलिए भी जिज्ञासा बनी रहती थी।



मज़े की बात ये भी है कि पुस्तक समीक्षा की रिक़ॉर्डिंग शुरू करने से पहले उनके साथ चर्चा तो होती थी मगर मैं कभी उन्हें अपने सवाल नहीं बताता था। वैसे भी मैं इंटरव्यू के लिए कभी सवाल लिखता नहीं, वह बातचीत के ज़रिए आगे बढ़ता है, उसी में से सवाल भी निकलते जाते हैं। यही नामवर जी के साथ बातचीत में भी होता था। इसका सबसे बड़ा लाभ ये होता था कि वह कभी तयशुदा लाइन पर नहीं चलता था और उसमें अचानक कुछ नई चीज़ निकलने या नामवर जी की किसी ऐसी टिप्पणी के आने की संभावना बनी रहती थी, जो कि वैसे नहीं आती। एक दो बार नामवरजी को मैंने असमंजस में भी डाला। एक-दो कृतियाँ ऐसी थीं जिनके बारे में वे कोई और राय बनाकर आए थे, मगर बातचीत के दौरान वह बिल्कुल उलट गई। नामवर जी को भी शायद इस अचानक वाले खेल में आनंद आता था इसलिए वे मेरे साथ ही साहित्य चर्चा करना पसंद करते थे। एकाध बार कुछ ऐसी परिस्थियाँ बनीं कि किसी और के साथ रिकॉर्डिंग करना पड़ सकता था, मगर उन्होंने मना कर दिया। मुझे इस बात की भी खुशी है कि वे मुझे बहुत छूट देते थे। मसलन, उनके पचहत्तरवें जन्मदिन पर मैंने किसी पुस्तक की समीक्षा करने के बजाय उन पर लगने वाले आरोपों पर तीखे सवाल किए। ये प्रश्न जातिवाद, मठाधीशी और पक्षपात जैसे चुभने वाले मसलों को लेकर थे। उन्होंने इसका बुरा नहीं माना और हँसते हुए कहा-आपके लिए कोई रोक-टोक नहीं है।



कुछ समय पहले योजना बनी थी कि सुबह-सवेरे में चार वर्षों के दौरान प्रसारित हुई साहित्य चर्चाओं को जुगलबंदी के नाम से पुस्तकाकार छापा जाए। लेकिन बहुत दुख की बात है कि उनकी रिकॉर्डिंग कहीं मौजूद नहीं है। मेरे पास भी उसकी केवल तीन-चार कड़ियाँ ही हैं। हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर थी जो नष्ट हो चुकी है। दूरदर्शन ने उसे सँभालकर नही रखा और मैं खुद इस गफ़लत में रहा कि मेरे पास सबकी तो नहीं, मगर अधिकांश की रिकॉर्डिंग है, जो कि थी ही नहीं। तीन-चार साल पहले फिर ये योजना भी बनी कि क्यों ने उन्हीं कृतियों पर एक बार फिर से बातचीत करके उसकी रिकॉर्डिंग कर ली जाए। इसके लिए पुस्तकों की सूची भी बना ली गई। मगर शायद अब समय बीत चुका है और नामवर जी भी शारीरिक रूप से इतने सक्षम नहीं रह गए हैं कि करीब दो सौ किताबों को फिर से देखें और बात करें। लेकिन मेरे लिए यही बड़े संतोष की बात है कि नामवर जी के मन में वे रिकॉर्डिंग छपी हुई हैं और वे हर मुलाकात मे उनका ज़िक्र करते हैं। साथ ही हज़ारों ऐसे लोग हैं जो इतने साल बाद भी उन्हें याद रखे हुए हैं।



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