अगर उन्होंने इसे कानून-व्यवस्था का मसला मानते हुए सुरक्षा बलों से निपटने की कोशिश की और रक्तपिपासु हो रहे अँधराष्ट्वादियों के दबाव में आकर गोला-बारूद का सहारा लिया तो काश्मीर हाथों से फिसल भी सकता है। ज़्यादा हिंसा होने पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी चुप नहीं बैठेगी। ये तर्क नहीं चल पाएगा कि ये उसका अंदरूनी मामला है।
अफसोस की बात ये है कि केंद्र और राज्य की सरकारें कुछ भी ठोस करते हुए नज़र नहीं आ रहीं। मेहबूबा मुफ़्ती की हुकूमत तो बिल्कुल बेजान सी दिखलाई दे रही है। तीस लोगों को मारे जाने के बाद तो मुख्यमंत्री शांति कायम करने की अपील करती नज़र आईं। उनके पास खोखले शब्दों के अलावा कुछ नही था।
ऐसा लगता है कि पीडीपी-बीजेपी की सरकार कुछ करना भी नहीं चाहती या उसे भय है कि अगर उसने कुछ किया तो उसका असर उल्टा पड़ेगा। मेहबूबा निश्चय ही इस बात को लेकर परेशान होंगी कि जिस जनाधार पर उनका वजूद टिका हुआ है, वही एक झटके में खिसक गया।
राज्य सरकार की घटक बीजेपी की भूमिका आग को भड़काने वाली है। वह हिंदुत्व की राजनीति में इस कदर उलझ़ी हुई है कि उसे अपना राष्ट्रीय दायित्व समझ में ही नहीं आ रहा है।
केंद्र सरकार का रवैया तो और भी निराशा पैदा करने वाला है। बुरहान वानी के एनकाउंटर के चार दिन बाद तो उसने पहली मीटिंग की, मगर उसके पास भी शांति बनाए रखने और सुरक्षा बलों से संयम बरतने की अपील करने के अलावा कुछ भी नहीं था।
वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी घाटी से किया गया अपना कोई भी वादा पूरा नहीं कर पाए हैं जिससे वहाँ उनकी साख पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है। बाढ़ के बाद उनकी सक्रियता से कश्मीरी अवाम ने उनसे जो आस लगा रखी थी, वह भी सियासी गरमी में पिघलकर बह चुकी है।
सरकार मीडिया पर दोष मढने में लगी है। कह रही है कि बुरहान को मीडिया ने हीरो बना दिया। सचाई ये है कि बुरहान को हीरो बनाने वाली वह खुद है। जब कश्मीर में हालात शांत थे तब उसने कोई भी राजीतिक पहल नहीं की। इसमें आतंकवाद को फिर से पनपने का मौक़ा मिल गया। उन्हीं का नेतृत्व कर रहा था बुरहान वानी।
मोदी ने अस्सी हज़ार करोड़ के राजनीतिक पैकेज का ऐलान तो कर दिया था मगर उसका हुआ क्या कोई नहीं जानता। राज्य में बेरोज़गारी राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक हो गई है। युवाओं के सामने कोई रास्ता नहीं है और ऐसे में अलगाववादियों के लिए उनका इस्तेमाल कर लेना बहुत आसान हो गया है। बेरोज़गार और सुरक्षा बलों द्वारा सताए युवकों का हीरो बुरहान वानी इसीलिए बन गया।
केंद्र सरकार की वादा खिलाफ़ी, प्रधानमंत्री की लफ्फाज़ी और मेहबूबा सरकार के नकारेपन ने पाकिस्तान को भी हमले करने का मौक़ा दे दिया है। वह फिर से कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरने करने में जुट गया है। अगर हालात न सँभले तो उसे अपना पक्ष मज़बूत करने का सुनहरा मौक़ा मिल जाएगा।
प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट को कश्मीर का इतिहास एक बार फिर से पढ़ना चाहिए और संघ के चश्मे को अलग रखकर पढ़ना चाहिए। ये क्श्मीर की आग पर सियासी रोटियाँ सेंकने का समय नहीं है। उत्तरप्रदेश के चुनाव में उसका इस्तेमाल कर लेने का मौक़ा नहीं है। ये कश्मीर में अमन-चैन बहाल करके राजनीतिक समाधान की प्रक्रिया शुरू करने का समय़ है।