हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद दिल्ली सरकार के अधिकारों के बारे में स्थिति बिल्कुल साफ़ हो गई है। दिल्ली में उपराज्यपाल का ही राज चलेगा यानी वही प्रशासनिक प्रमुख है। ये बात आम आदमी पार्टी को स्वीकार कर लेनी चाहिए। लेकिन अब भी अगर वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की बात कर रही है तो ये उसकी हठधर्मिता के सिवा कुछ नहीं।
हाई कोर्ट में इतना बड़ा झटका खाने के बाद आप को सोचना चाहिए कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी वही निर्णय दिया तो उसकी कितनी फ़ज़ीहत होगी। बल्कि संभावना इसी की है कि वह जो उम्मीद कर रही है वह उसे सुप्रीम कोर्ट भी नहीं दे सकता। इसकी वजह भी स्पष्ट है।
अदालत को आप द्वारा छेड़ी गई सेलेक्टिव बनाम इलेक्टिव की बहस से कोई लेना-देना नहीं है। उसे तो मतलब है संविधान से। वह संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या ही कर सकती है, उन्हें बदल नहीं सकती। बदलने का अधिकार केवल विधायिका को है। यानी संसद चाहे तो दिल्ली राज्य की स्थिति को बदल सकती है, उसे राज्य का दर्ज़ा देकर दूसरे राज्यों की तरह अपने फ़ैसले लेने का अधिकार प्रदान कर सकती है।
कायदे से केजरीवाल सरकार को चाहिए था कि वह संवैधानिक प्रावधानों का पालन करते हुए दिल्ली का कामकाज चलाती। साथ ही विधानसभा और जन आंदोलन के ज़रिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाती कि वह दिल्ली को और अधिकार दे। लेकिन उसने ऐसा करने के बजाय टकराव का रास्ता अख़्तियार किया जिसमें उसकी हार तय थी और वही हुआ भी है।
इस अवांछित टकराव ने केजरीवाल सरकार की किरकिरी तो करवाई ही है, आम जनता में ये धारणा भी बनाई है कि वह बात-बात पर लड़ने को तैयार रहती है और काम करके दिखाने से भाग रही है। हालाँकि उसके लड़ाकू तेवरों ने एक दूसरी तरह से उसकी छवि को चमकाया भी है और उसे राष्ट्रव्यापी चर्चा में भी वह खुद को बनाए रख सकी है। इसका उसे राजनीतिक लाभ भी मिल रहा है। शायद इसीलिए वह इसे अब सुप्रीम कोर्ट में ले जा रही है।
लेकिन हाई कोर्ट के फ़ैसले का ये मतलब भी नही है कि उपराज्यपाल नजीब जंग और केंद्र सरकार को क्लीन चिट मिल गई है। अगर केजरीवाल सरकार उससे लड़ने पर आमादा रही है तो वे भी उसे हैरान-परेशान करने में लगे रहे हैं। जंग ने केंद्र सरकार का एजेंट बनकर प्रदेश सरकार के हर काम में रोड़ अटकाए और उनका रवैया कभी भी सहयोग का नहीं रहा।
केंद्र सरकार के रुख़ के बारे में तो किसी को कोई शक़ है ही नहीं। उसने दिल्ली पुलिस का बहुत ग़लत ढंग से इस्तेमाल किया है। आज अगर करीब एक दर्ज़न विधायक जेल में हैं तो उसके षड़यंत्रों की वजह से ही। दूसरे मामलों में भी उसका रवैया असहयोग का रहा। बल्कि इससे भी आगे जाकर वह उसके साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती रही है।
दिल्ली और केंद्र सरकार के आपसी रिश्ते केंद्र और राज्य के संबंधों की सबसे घटिया मिसाल बन गई है। उत्तराखंड और अरुणाचल में उसकी कारगुज़ारियों का परदाफाश भली-भाँति हो चुका है मगर दिल्ली के मामले में शायद ये अभी निर्णायक तौर पर होना है।
बहरहाल, लब्बोलुआब ये है कि हाई कोर्ट के फ़ैसले से केजरीवाल की किरकिरी तो हुई है मगर इसका ये मतलब कतई नही है कि उपराज्यपाल एवं केंद्र सरकार की जीत हुई है या वे पाक-साफ़ घोषित कर दिए गए हैं।