संपादकीय स्वतंत्रता आज के दौर में एक मिथ है, मिथ्या है। पूरी दुनिया जानती है कि संपादक नामक संस्था अगर ख़त्म नहीं हुई है तो उसका इस हद तक ह्रास हो चुका है कि वह न होने के बराबर है। अब अगर स्वतंत्रता किसी की है तो मालिकों की। सत्ता किसी की है तो मालिकों की और मालिक भी अपने धंधे की आवश्यकताओं से संचालित होते हैं। वे अपने मुनाफ़े के लिए विज्ञापनदाताओं के सामने झुक जाते हैं और राजनीतिक दबावों के सामने तो फ़ौरन ही घुटने टेक देते हैं। इस पूरे खेल में संपादक केवल कठपुतली बनकर रह गया है। अगर वह अपने मालिकों के हिसाब से नहीं चलता है तो उसकी छुट्टी करने में वे एक पल की भी देर नहीं लगाते।
मुश्किल ये है कि अधिकांश मालिकान परदे के पीछे से काम करते हैं और सामने रहते हैं संपादक, ऐंकर या पत्रकार। लाज़िमी है कि अधिकांश दर्शक उन्हें ही ज़िम्मेदार मान लेते हैं जो सामने नज़र आते हैं। वे अपना गुस्सा या प्यार उन्हीं पर उड़ेलते हैं। वे भूल जाते हैं कि जिन पर वे नाराज़ हो रहे हैं वे महज कठपुतलियाँ हैं। लेकिन दर्शक ही नहीं, बड़े-बड़े पत्रकार और मीडिया विश्लेषक भी इसी भ्रम में जीते हैं। वे किसी संपादक या ऐंकर को निशाना बनाकर टूट पड़ते हैं, जबकि उससे कुछ होने वाला नहीं है।
किसी भी मीडिया संस्थान की नीतियाँ प्रबंधन द्वारा तय की गई होती हैं और उसके मुलाज़िम कमोबेश उसका पालन कर रहे होते हैं। पत्रकारों को इसके लिए तो कोसा जा सकता है कि वे तनकर नहीं खड़े होते, मालिकों के सामने बिछ जाते हैं या उनके हिसाब से अपने विचार बदल लेते हैं, मगर वास्तव में वे होते असहाय ही हैं। लेकिन इस नज़रिए से होता ये है कि मालिक अपने स्वार्थ साधते रहते हैं और पत्रकार नाम और दाम के लालच में पिटता रहता है। बहुत बार नौकरी उसके ज़िंदा रहने की ज़रूरत भी होती है इसलिए उसे समझौते करने पड़ते हैं।
हाल में पत्रकारों के बीच जो वाक्युद्ध हुआ और जो अभी जारी है, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ये कैसे संभव है कि अर्नब गोस्वामी मीडिया की मुश्कें कसने, पत्रकारों को जेल में ठूँसने की बात कहें और टाइस्म समूह का प्रबंधन उन्हें बनाए रखे। ये तो पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों के खिलाफ़ है, लोकतंत्र के खिलाफ़ है और कोई भी मीडिया संस्थान इसके विरूद्ध अभियान चलाने वाले को कैसे बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन टाइम्स समूह कर रहा है, तो इसीलिए कि वह सत्ताधारियों को खुश रखकर अपनी गोटियाँ लाल करना चाहता है।
याद कीजिए फरवरी में जब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का विवाद उठा था तो टाइम्स के प्रबंध निदेशकविनीत जैन ने एक महत्वपूर्ण ट्वीट किया था। उन्होंने कहा था कि “ सरकार की आलोचना करना या आज़ाद मुल्क की माँग करना देशद्रोह नहीं है, हिंसा को उकसाना ग़लत एवं दंडनीय है मगर फाँसी ठीक नहीं।“ ध्यान रहे कि ठीक उसी समय टाइम्स नाऊ पागलों की तरह कन्हैया कुमार, उनके साथियों और जेएनयू समर्थकों पर टूट पड़ा था। वह पूरी तरह से सरकार और तथाकथित राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा था और पहले से निकाल लिए गए मनमाने निष्कर्षों के आधार पर भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन टाइम्स प्रबंधन ने उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की।
खबरों में बने रहने के शौकीन विनीत जैन संस्थान की छवि को निष्पक्ष बनाए रखने के लिए इस तरह के ट्वीट करते रहते हैं। कश्मीर में जब मीडिया पर पाबंदियों लगाई गईं थीं, तब भी उन्होंने इसे ग़लत बताया था। मगर अब जबकि उनका चैनल ही इसकी वकालत कर रहा है तो वे न तो कुछ बोल रहे हैं, और न ही कोई कार्रवाई कर रहे हैं। ये ठीक उसी तरह से है कि चोर से कहा चोरी करो और कोतवाल को सावधान रहने के लिए।
मामला केवल अर्नब और टाइम्स समूह भर का ही नहीं है। ज़ी समूह का उदाहरण भी लिया जा सकता है। सुधीर चौधरी और समीर अहलुवालिया को सरे आम पैसे माँगते हुए दिखाया गया, वे जेल गए और उनके पर मुकद्दमा भी चल रहा है, मगर सुभाष चंद्रा ने उन्हें पद पर बनाए रखा है, क्योंकि वे उन्हें अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुफीद पा रहे हैं। बरखा दत्त राडिया मामले में बदनाम हो गईं, मगर वे एनडीटीवी में बनी हुई हैं। प्रभु चावला भी विभिन्न चैनलों में शो करते रहते हैं।
ये तो चंद उदाहरण भर हैं। गेहूँ की पूरी बोरी में घुन लगा हुआ है। लेकिन इसमे कसूर गेहूँ का कम है, बोरी के मालिक का ज़्यादा। हालाँकि घुने हुए गेहूं से दीर्घावधि में उसे भी फायदे की जगह नुकसान ही होगा, मगर वे आज की चिंता करने वाले लोग हैं, कल के लिए कुछ और ढूँढ़ लेंगे। असल नुकसान तो मीडिया नामक संस्था का है, लोकतंत्र का है और ये उन्हीं के हाथों हो रहा है। इसलिए निवेदन है कि पतित पत्रकारों के साथ-साथ मीडियापतियों को भी देखिए और कोसिए।
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