आपस में लड़ते रहेंगे तो पाकिस्तान से कैसे लड़ पाएंगे


हाल में इंडियन एक्सप्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक भाषण छापा था। यह भाषण संसद पर हमले के बाद का है, जिसको उन्होंने सदन में दिया था। भाषण में उनका पूरा जोर उस नाजुक मौके पर देश और देशवासियों की एकता पर था।

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अब जबकि कश्मीर में आर्मी कैंप पर हमला हुआ है तो पूरा देश आहत है। लोग अपने-अपने तरीके से उस पर दुख, अफसोस और गुस्सा जाहिर कर रहे हैं। ऐसे मौके पर प्रधानमंत्री मोदी और उनके समर्थकों का रुख बिल्कुल अनोखा है। देश की बात तो दूर मोदी जी अपनी टीम को भी एक नहीं कर पा रहे हैं।
हमले के बाद जिस एक मंत्री और मंत्रालय की इस समय सबसे ज्यादा जरूरत है, वो हैं सुषमा स्वराज और उनका विदेश मंत्रालय। वह चाहे विदेश में राजनयिकों को निर्देश देने का मसला हो या फिर विदेशी दूतावासों से संपर्क का या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने पक्ष में जनमत जुटाने का। हर इस तरह के मामले में इस मंत्रालय की केंद्रीय भूमिका हो जाती है।

घटना के बाद लगातार सरकार की उच्चस्तरीय कमेटियों की बैठकें हो रही हैं। लेकिन किसी भी बैठक में सुषमा स्वराज नहीं दिखीं। अब इसकी वजह क्या है यह तो प्रधानमंत्री, उनकी पार्टी और सरकार जाने लेकिन इससे देश को बड़ा नुकसान हो रहा है।

विदेश मंत्रालय के बाबुओं से शब्द उधार लें तो मौजूदा समय में पूरा विदेश मंत्रालय महज पोस्ट बॉक्स बनकर रह गया है। सारे फैसले पीएमओ और डोवाल साहब लेते हैं और फिर उसे लागू करने के लिए विदेश मंत्रालय को भेज दिया जाता है।

बताया जाता है कि सुजाता सिंह के बाद विदेश सचिव बने एस जयशंकर से भी मोदी जी के रिश्ते में अब वह बात नहीं रही। ऐसे में विदेश मंत्रालय के दो शीर्ष पदों के साथ यह रिश्ता हालात बयानी के लिए काफी है। हां एक हफ्ते बाद सुषमा जी को एक पन्ना संयुक्त राष्ट्र में पढ़ने के लिए अलबत्ता थमा दिया जाएगा। लेकिन इससे भूमिका की कमी की भरपाई नहीं होगी।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी स्थिति पहले के मुकाबले और कमजोर हो गई है। मोदी जी की तमाम यात्राओं का जमा हासिल क्या है? इतने नाजुक मौके पर एक बड़े राष्ट्राध्यक्ष ने फोन भी करना जरूरी नहीं समझा। इतनी बड़ी घटना पर अगर अपने दूतावासों को सक्रिय न किया गया होता। तो शायद दूसरे देशों का निंदा बयान भी न दिखता। अफगानिस्तान और श्रीलंका के राष्ट्राध्यक्षों की बात छोड़ दें (जिनके अपने-अपने कारण हैं) तो क्या किसी बड़े देश और उसके राष्ट्राध्यक्ष का फोन मोदी जी को ढांढस बंधाता सुना गया? एक जमाना था जब हम बड़ी आर्थिक ताकत न होने के बावजूद तीसरी धारा के नेता हुआ करते थे। गुट निरपेक्ष से लेकर तमाम मंचों पर हमारी तूती बोलती थी। कहीं यासिर अराफात, तो कहीं डेसमंड टूटू और कहीं फिदेल कास्त्रो हमारे साथ खड़े मिलते थे। जहां जैसी भी जरूरत हो। रूस से तो घर जैसी बात थी। लेकिन मोदी जी की इतनी ढेर सारी कवायदों के बाद क्या मिला?


जिस बराक को वे अपना मित्र कहते नहीं अघाते और जिसके साथ सैन्य समझौता कर हमने अपनी जमीन तक उसके हवाले कर दी, उस अमेरिका के बयान में पाकिस्तान का नाम तक नहीं दिखा। ‘मित्र बराक’ ने एक फोन भी करना जरूरी नहीं समझा। यह कैसी मित्रता है भाई? आलम यह है कि आज दुनिया में न तो एक देश और न ही राष्ट्राध्यक्ष ऐसा हैजिसके बारे में हम कह सकते हैं कि वो हमारे साथ आंख मूंद कर खड़ा है।

इसे बचकानापन कहें या बेवजह की जिद या फिर नेहरू से घृणा का नतीजा। देश का पीएम ने पहली बार गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। जबकि सच यह है कि सिर्फ मोदी जी की उपलब्धता के लिहाज से ही वेनेजुएला ने इस सम्मेलन को कुछ महीनों के लिए टाल दिया था।

माना कि इसकी प्रासंगिकता उस रूप में नहीं रही। लेकिन यह 100 से ज्यादा देशों का मंच है। कम से कम यहां देशों और उनके राष्ट्राध्यक्षों को एक दूसरे से संपर्क और तमाम मसलों पर विचार-विमर्श का मौका तो मिलता है और इसका अगुवा होने के नाते हमारी जिम्मेदारी भी काफी बढ़ जाती है। कूटनीति के मोर्चे पर मुंह की खाने जैसी भारत की नियति बन गई है। आप एक ऐसे मौके पर पाकिस्तान को अलगाव में डालना चाहते हैं, जब आपने खुद को अमेरिका के साथ नत्थी कर दिया है। ऐसे में आप उम्मीद करते हैं कि इसके बाद भी धुर अमेरिका विरोधी चीन और रूस आप का साथ देंगे।

यह तो पुराने दिनों और दोस्ती की लाज कहिए रूस हमारे साथ दिख रहा है। लेकिन आपकी दिशा उसके बिल्कुल उलट है।

और पाक को अंतरराष्ट्रीय मंचों से कैसे अलग-थलग कर पाएंगे? अगर यह काम एशिया में नहीं हो पा रहा है। ओआईसी देशों के मंच पर भी यही हालात हैं। इस्लामिक देशों का यह संगठन पहले भी पूरी तरह से भारत के साथ न सही लेकिन पाकिस्तान के साथ भी नहीं जाता था। और उसमें कई देश कश्मीर तक के मसले पर खुलकर हमारे साथ खड़े होते थे। लेकिन अगर आप खुलकर इस्राइल के साथ रहेंगे तो भला उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं।

रही सही कसर संघ और उसके भक्त पूरी कर दे रहे हैं। इस समय जब तोप का मुंह पाकिस्तान की तरफ होना चाहिए। तो उसको उन्होंने देश के भीतर मोड़ दिया है। और वो देशवासियों के खिलाफ ही घृणा और दुष्प्रचार में जुट गए हैं। इसमें कांग्रेस से लेकर मुसलमान और कम्यूनिस्ट सब उनके निशाने पर हैं। मानों सैनिक पोस्ट पर हमले ने उन्हें अपनी सांप्रदायिक राजनीति के विस्तार का नया मौका दे दिया हो।


दरअसल यह विखंडन की विचारधारा है। इसने हमेशा बांटने का ही काम किया है। ऐसे में इससे किसी एकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। और जो समाज एक नहीं रह सकता है, वहअंदर से कमजोर होगा। वह किसी बाहरी दुश्मन से लड़ भी नहीं सकता है। यह बात संघ और उसके समर्थकों को समझनी होगी। एकता जीत की बुनियादी शर्त होती है और किसी बंदूक, गोली, तोप और मिसाइल से पहले यह मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर बनती है। इनकी कश्मीर नीति का जमा हासिल यह है कि पूरी घाटी सरकार के खिलाफ खड़ी है। आप उससे उस सेना के पक्ष में समर्थन की उम्मीद कैसे कर सकते है, जिसने कुछ दिनों पहले ही उन्हें अंधा बनाया है और परिजनों को मौत दी हो। कश्मीर से सटी सीमा पर पाकिस्तान के खिलाफ किसी लड़ाई की स्थिति में शायद ही वह समर्थन मिल सके। यह वही कश्मीर है जब 47 में कबाइली हमला हुआ तो शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में घाटी की जनता ने भारतीय फौजों के साथ मिलकर मुंहतोड़ जवाब दिया था। 1965 के युद्ध के समय भी कमोबेश उसकी इसी तरह की भूमिका थी। लेकिन आज हम इसका दावा नहीं कर सकते हैं।

ऐसे में जब तक हम इन अंदरूनी कमियों को दूर नहीं करते, हमें सफलता मिलना मुश्किल है। इस मामले में दूसरों से ज्यादा सत्ता में शामिल संगठन और उनके समर्थकों की भूमिका बढ़ जाती है। लेकिन इसकी शुरुआत शिखर यानी मोदी जी से होगी।

आपस में लड़ते रहेंगे तो पाकिस्तान से कैसे लड़ पाएंगे

Written by-महेन्द्र मिश्र

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