निचले तबक़े के लोगों में कम होती संवेदना बहुत चिंता का विषय माना जाना चाहिए है। कुछ दिनों से झारखंड के एक अस्पताल में फर्श पर भोजन परोसने की ख़बर चर्चा में बहस का विषय बनी हुई है। ये झकझोर देने वाली घटना पूरे समाज का आईना है। इसमें व्यवस्था का और मनुष्य का चेहरा देखा जा सकता है। लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए कौन कौन दोषी हो सकते हैं? सत्ता, पूंजीपति, व्यवस्था या अस्पताल प्रशासन?
दोषियों पर बात की जा सकती है और की भी जानी चाहिए मगर इस घटना में सिर्फ आसमान में उड़ने वाले ही नहीं, बल्कि ज़मीन से जुड़े लोग भी शामिल हैं, हम उन्हें अनदेखा कैसे कर सकते हैं? खाना परोसने वाला कोई पूंजीपति या राजनीतिज्ञ नहीं था, एक अदना सा कर्मचारी था।
अस्पताल में डी ग्रेड कर्मचारियों की तनख़्वाह होती ही कितनी है? उतनी ही जितने में वह किसी तरह बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सके। मतलब ये कि अस्पताल में जिस व्यक्ति ने निर्मम घटना को अंजाम दिया, वो एक आम आदमी है।
बहुत भयावह स्थिति है, एक आम आदमी के भीतर से संवेदना और जिम्मेदारी के भाव का नष्ट हो जाना। सवाल उठता है कि फिर कटघरे में सिर्फ सत्तापक्ष और पूंजीवादी व्यवस्था ही क्यों है?
साहित्यकार, लेखक, पत्रकार, अक्सर अपनी रचनाओं के माध्यम से, समाज के उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय लोगों में, संवेदनाओं के नष्ट होने की दुहाई देते रहते हैं, पूंजीपतियों और नेताओं के व्यवहार पर टिप्पणी करते रहते हैं। वे व्यवस्था का विरोध करते रहते हैं, आम आदमी की स्थितियों- परिस्थितियों, मज़बूरियों का वर्णन करते हैं, लेकिन आज आम आदमी की भी संवेदना नष्ट हो गई है, वो भी दोषियों की श्रेणी में खड़ा है, तो उसे कटघरे में क्यों नहीं खड़ा करना चाहिए?
इस घटना में अगर सत्ता, व्यवस्था, पूंजीपति, अस्पताल का प्रशासन जितना दोषी है उतना ही दोषी वह आम आदमी कहलाने वाला कर्मचारी भी है। और कहीं न कहीं सोशल मीडिया और बिका हुआ मीडिया भी, जिसने तस्वीर खींच कर सोशल मीडिया पर साझा की, बल्कि सबसे बड़ा असंवेदनशील व्यक्ति तो वही है, जिसने तस्वीर खींच कर पूरे हिन्दुस्तान में संप्रेषित करने की जहमत की, लेकिन उस खाना परोसते हुए कर्मचारी का हाथ नहीं पकड़ा, उसके मुँह पर तमाचा नहीं मारा।
इतनी ही संवेदना अगर उस पत्रकार में होती तो पहले वह उस मरीज़ को प्लेट में खाना मुहैया करवाता। अस्पताल वालों ने नहीं दिया तो, वही अपना कैमरा चलाने से पहले, उस मरीज़ को सम्मान पूर्वक भोजन करा देता, उसके बाद मिडिया और सोशल मीडिया की रोटियां सेकने का इंतजाम करता।
मरीज़ कितना विवश था कि, उसने विरोध नहीं किया, खाना खा लिया फर्श से ही उठाकर। उसके परिवार वाले कहाँ थे? क्या वो घर से ज़रूरी वस्तुएं मरीज़ के लिए नहीं ला सकते थे? या फिर इस घटना का दूसरा पहलू यह है कि, वो मरीज़ अकेला ही था अस्पताल में भर्ती, और उसके परिवार के सदस्य उसके साथ अस्पताल में रहने के लिए असमर्थ होंगे, किन्हीं कारणों से।
कैसी - कैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है एक ग़रीब आदमी को। जिसकी ओर सत्ता का ध्यान कभी केंद्रित नहीं होता, वर्तमान सत्ता से क़ितनी उम्मीदें थीं जनता को, लेकिन क्या हुआ, सरकार ने अपने वादे पूरे किये? यह छोटी-छोटी बुनियादी ज़रूरतें तो पूरी की नहीं, और मेहंगी दँवाईयों की सब्सिडी भी ख़त्म कर दी।
ये सही है कि व्यवस्था अगर संवेदनहीन हो तो वह लोगों को भी निर्मम बना देती है, उन्हें अमानवीय बना देती है। झारखंड के अस्पताल में जो कुछ हुआ वह इसी व्यवस्था से पैदा हुई उपेक्षा और लाचारी का नतीजा है। मगर हमें ये भी सोचना होगा कि इसका अंत क्या हो और कैसे है?
Written by-मेहजबीं
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