दिल्ली के बर्खास्त मंत्री संदीप कुमार से जुड़ी सीडी में कितनी सचाई है, इसका फ़ैसला तो जाँच के बाद ही किया जा सकेगा क्योंकि तमाम चीज़ें बहुत धुंधली हैं और अगर आप किसी पक्ष से नहीं जुड़े हैं तो अपना फ़ैसला रिज़र्व रखेंगे। मामला सहमति से सेक्स का है या फिर यौन शोषण तथा ब्लैकमेलिंग का ये इस शोर-शराबे के बीच तय करना न संभव है और न ही किया जाना चाहिए। राजनीतिक साज़िश की बातें भी हवा में हैं। इसके बावजूद संदीप कुमार का बचाव करना भी ग़लत होगा, क्योंकि उनकी तरफ़ से कोई विश्वसनीय सफ़ाई नही आई है।
उनकी पार्टी ने ही उन पर भरोसा नहीं किया है इसलिए वे संदेह के सघन दायरे में तो हैं ही। ऐसे में इस विवाद को न्याय प्रक्रिया पर छोड़ दिया जाना चाहिए। लेकिन इस पूरे प्रकरण में मीडिया की भूमिका क्या रही और क्या उसने उस मर्यादा पालन किया जो कि ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग के लिए निर्धारित किए गए हैं।
वैसे उक्त मानदंडों के हिसाब से भी इस पहेली को हल करना आसान नहीं है क्योंकि एक तो इस तरह के मामलों के कवरेज के संबंध में परस्पर विरोधी मत हमेशा से रहे हैं और दूसरे सही-ग़लत के बीच की रेखा इतनी महीन है कि वह अकसर धुँधली पड़ जाती है और कुछ भी तय करना मुश्किल हो जाता है। एक तरफ मुद्दा निजता का है तो दूसरी ओर सार्वजनिक जीवन में शुचिता का सवाल है। किसी के निजी जीवन के अंतरंग पहलुओं को उजागर करना अच्छी पत्रकारिता नहीं माना जाता, मगर सार्वजनिक जीवन जीने वाले किसी व्यक्ति का आचरण या चरित्रगत कमज़ोरियों को छिपाना भी जनहित में नहीं होता। ज़ाहिर है कि ऐसे में किसी भी पत्रकार या मीडिया संस्थान के लिए ये बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह ऐसी सूरत मे क्या करे।
संदीप कुमार के सेक्स स्कैंडल का ज़ोर-शोर से प्रसारण करने वाले न्यूज़ चैनल का कहना है कि उसने सार्वजनिक जीवन में शुचिता को ध्यान में रखते हुए संदीप कुमार का सीडी काँड दिखाया यानी उसने सही किया। लेकिन क्या उसके इस दावे को सही माना जा सकता है? शायद इसका भी फ़ैसला करना कठिन है, मगर कुछ कसौटियाँ हैं जिस पर इस दावे को कसकर देखा जा सकता है। अव्वल तो ये कि क्या इस तरह की ख़बर को प्रस्तुत करने के पहले वो जाँच-पड़ताल की गई थी जिसकी यहां ज़रूरत थी? ये इस तरह के कवरेज का सबसे अहम पहलू है, क्योंकि बिना ऐसा किए सच तक पहुंचना मुश्किल होता है। अब अगर चैनल के कंटेंट को देखा जाए तो इसका जवाब यही है कि नहीं, क्योंकि पहले दिन की पूरी रिपोर्ट केवल और केवल सीडी पर केंद्रित थी, आरोपों की पुष्टि के लिए उसके साथ कुछ भी नहीं था। चैनल ने उसके किरदारों को तलाशकर उनका पक्ष साथ-साथ रखने की कवायद को बाई पास कर दिया।
इसे भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ये सीडी चैनल की खोजी टीम ने नहीं बनाई थी या ये उसके द्वारा किया गया स्टिंग ऑपरेशन नहीं था। ये किसी गुमनाम व्यक्ति द्वारा बाँटी गई सीडी थी और ऐसा करने के पीछे उस व्यक्ति के क्या स्वार्थ हो सकते हैं, ये भी किसी को पता नहीं है। ऐसे में कोई भी अच्छा मीडिया संस्थान या पत्रकार इस तरह की सामग्री को या तो फौरन खारिज़ कर देता है या फिर उसका इस्तेमाल करने के पहले सौ तरह से जाँच-पड़ताल करता है। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि चैनल ने ये कवायद भी की थी। वास्तव में ये टेबलॉयड पत्रकारिता का अंदाज़ है जिसमें ख़ास तौर पर संदिग्ध सेक्स स्कैंडल को उछालकर लोकप्रियता हासिल करने की तिकड़में की जाती हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात इस प्रसंग में ये है कि अगर किसी मीडिया संस्थान को सचमुच में लगता है कि उसे मिली सामग्री सौ फ़ीसदी सही है और उसका प्रसारण भी जनहित में ज़रूरी है तो वह उसके बेहद आपत्तिजनक दृश्यों के प्रसारण से बचता है। अकसर तो वह पूरी जानकारी देते हुए केवल ये बता देता है कि उसके पास इसके पुख़्ता प्रमाण हैं। यानी बिना अश्लील एवं हल्के हुए वह अपने पत्रकारीय दायित्वों का निर्वाह कर देता है। मगर उक्त चैनल ने ऐसा भी नहीं किया और बाद में तमाम चैनल बहती गंगा में हाथ धोने लगे।
असल में कड़वी सचाई ये है कि सेक्स जमकर बिकता है, मगर न्यूज़ चैनलों के पास उसका इस्तेमाल करने के ज़्यादा विकल्प नहीं होते। अपराधों और फिल्मी ख़बरों के ज़रिए वे थोड़ा-बहुत ये खेल कर लेते मगर असली मौक़ा उन्हें सेक्स स्कैंडल के ज़रिए ही मिलता है और तब उनकी लार टपकने लगती है। वे तब पत्रकारिता की आचार संहिता को कूड़ेदान के हवाले करके पूरी ताक़त से टूट पड़ते हैं और उसकी बोटी-बोटी चबा जाते हैं। संदीप कुमार के मामले में हमने यही होते देखा है और भविष्य में भी देखेंगे।
सेक्स स्कैंडल यानी छोटे परदे पर जलवा बिखेरती टेबलॉयड पत्रकारिता
Sex scandal in media market
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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