मीडिया नहीं सुधरेगा, वह पहले भी ऐसा ही था और आगे भी ऐसा ही रहेगा


बहुत से लोग हैरान हैं कि मीडिया को हो क्या गया है कि वह इस तरह से बढ़-चढ़कर युद्धोन्माद फैलाने में जुट हुआ है? क्यों अर्नब गोस्वामी ने न्यूज़रूम को वार रूम में तब्दील कर दिया है?  क्यों ज़ी टीवी दिन-रात युद्ध-युद्ध की रट लगा रहा है? क्यों आज तक, एबीपी न्यूज़, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़ आदि युद्ध के नतीजों को भुलाकर लड़ने-लड़ाने की बहस चला रहे हैं?

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युद्ध का ये उन्माद सबसे ज़्यादा टीवी चैनलों और डिजिटल मीडिया में दिख रहा है। सोशल मीडिया तो इससे बजबजा रहा है। दैनिक जागरण टाइप के अख़बारों को छोड़ दें तो पत्र-पत्रिकाएं फिर भी संयमित दिख रहे हैं। हालाँकि उनका चरित्र कुछ दूसरे तरह का होता है इसलिए वह पागलपन कम भारी दिखलाई देता है।
लेकिन लोग इस तरह का कोई विभेद किए बिना समूचे मीडिया को गाली दे रहे हैं, उसकी निंदा-भर्त्सना कर रहे हैं, उसे ग़ैर जिम्मेदार, विंध्वसकारी और जन विरोधी बता रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या ऐसा पहली बार हो रहा है? क्या पिछले मौक़ों पर उसने इससे अलगा भूमिका निभाई थी?


बहुत से लोग जो मीडिया के इतिहास से वाकिफ़ नहीं हैं और जिन्होंने इस तरह के मौक़ों पर उसके चरित्र को नहीं देखा है उन्हें लग सकता है कि ये पहली बार हो रहा है। लेकिन सचाई यही है कि उसका रवैया हमेशा से ऐसा ही रहा है। यही नहीं, मीडिया चाहे हिंदुस्तान का हो, पाकिस्तान का या फिर किसी और मुल्क का, वह ऐसे मौकों पर इसी तरह से उन्मादी हो जाता है।

वास्तव में युद्ध से पहले मीडिया की भूमिका क्या होती है इसे देखना हो तो फिलहाल जो हमारा मीडिया कर रहा है उसे देखकर आसानी से समझा जा सकता है। हमेशा की तरह इस बार भी उसने अपनी तमाम लोकतांत्रिक और मानवीय ज़िम्मेदारियों को ताख़ पर रख दिया है। सच के प्रति जो थोड़ा-बहुत आग्रह होता है उसने उसे सबसे पहले ख़त्म कर दिया है।

मीडिया ने अफवाहों से खेलना शुरू कर दिया है। वह आधे सच को परम सत्य की तरह परोस रहा है और विकृत कल्पनाशीलता से काम लेते हुए ऐसी-ऐसी चीज़ें गढ़ना शुरू कर दिया है जिनका अस्तित्व ही नहीं है। कभी भारतीय सेना को सीमा पार करके हमला करने की ख़बर देता है तो कभी ये बताता है कि भारत ने पाकिस्तान को दुनिया में अलग-थलग कर दिया है जबकि ऐसा है नहीं।

इस तरह के कंटेंट से वह विचारों और भावनाओं का ऐसा मिथ्या जगत रच रहा है जो देश और समाज को युद्ध की ओर ले जाता है। आप कह सकते हैं कि वह जन भावनाओं को भड़काकर युद्ध का वातावरण बना रहा है, लोगों के अंदर नफ़रत एवं हिंसा की भावना पैदा कर रहा है। इसी का असर है कि लोग पाकिस्तान पर हमला करने, उसे सबक सिखाने और एक के बदले दस सिर लाने की बातें कर रहे हैं।

हक़ीक़त तो ये है कि मीडिया एक प्रोपेगंडा मशीनरी की तरह काम कर रहा है। वह समाज एवं देश के लिए नहीं किसी व्यक्ति विशेष के लिए, एक राजनीतिक वर्ग के हित में ये अभियान चला रहा है। वह बड़े अच्छे से जानता है कि युद्ध से किसी का भला नहीं होता, उससे हारने तथा जीतने वाले दोनों का भयानक नुकसान होता है मगर फिर भी इस विनाशकारी अभियान को हवा दे रहा है।


मीडिया का ये रवैया शासक वर्ग को माफ़िक बैठता है, बल्कि वह तो यही चाहता ही है। इससे उसे सबसे बड़ा फ़ायदा ये होता है कि लोगों का ध्यान उन मुद्दों से हट जाता है जो उसकी कलई खोलते हैं। आर्थिक एवं सामाजिक मोर्चे पर उठने वाली चुनौतियों पर उससे कोई सवाल नहीं करता और वह भारत माता की जय बोलते हुए युद्ध की बात में सबको उलझा देता है।

महाराष्ट्र में एक साल के अंदर 17000 बच्चे कुपोषण से मारे गए मगर मीडिया उसके बारे में बात नही कर रहा न ही सरकारों को कठघरे में खड़ा कर रहा है। महाराष्ट्र में ही एक साल में 3000 किसानों ने आत्महत्या कर लीं मगर वह भी उसके एजेंडे में नहीं है। ग़रीबी, बेकारी, शोषण, दमन आदि की खबरें पूरी तरह से दबा दी गई हैं।
मीडिया को इस समय न नागरिक अधिकारों की चिंता है और न ही मानव अधिकारों की। राष्ट्रवाद की अफीम खाकर वह मस्त हो गया है। बाज़ार में आगे निकलने और मोटा मुनाफ़ा कमाने की होड़ तो है ही, अपने मालिकों और राजनीतिक आकाओं के एजेंडे को पूरा करना भी उसका मक़सद है।

झूठ, अफ़वाहों और उन्माद पर खड़ा ये कारोबार आगे बढ़ता जाएगा। हाँ, अगर सत्ता के शिखर से कोई संकेत मिल गया तो फिर शांति का राग अलापना भी शूरू हो सकता है। मगर अभी तो इसके संकेत मिलते नहीं दिख रहे। इसके विपरीत अगर टकराव बढ़ा तो मीडिया के जिहादी तेवर भी बढ़ते जाएंगे।

इसलिए मीडिया से समझदारी की उम्मीद मत कीजिए। वह संयम से काम ले ही नहीं सकता। मीडिया पहले भी ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा। वो नहीं सुधरेगा।

मीडिया नहीं सुधरेगा, वह पहले भी ऐसा ही था और आगे भी ऐसा ही रहेगा
Media will not change. It is like that and always be same

Written by-अभिजीत बैनर्जी


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