दलितों पर अत्याचार, महिलाओं को घरों में बंद करने की गुहार, माँब लिंचिंग, कर्मकांड, तंत्र-मंत्र, प्लास्टिक सर्जरी तथा महाभारत काल में इंटरनेट जैसे मुद्दों का छा जाना बताता है कि हिंदुस्तान चार साल में चालीस साल पीछे चला गया है।
कुछ लोग नाइत्तफ़ाकी रखते हुए कहेंगे कि चालीस नहीं चार सौ साल पीछे चला गया है, क्योंकि जिस तरह के मुद्दे आम बहसों पर हावी हो गए हैं वे मध्ययुगीन हैं। बेशक़ अभी ये दूर की कौड़ी लगती हो, मगर क्या पता अगले चार सालों में ये बात सही भी साबित हो जाए।
ख़ून का बदला ख़ून जैसी हुंकारें बढ़ती जा रही हैं। गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं और लोग हिसाब बराबर करने के लिए उन्मादग्रस्त हो रहे हैं।
लोग बात-बात पर उगल रहे हैं। वे बलात्कारियों तक का समर्थन करने पर उतारू हैं और हत्याएं उन्हें विचलित नहीं कर रही हैं। ऐसी बर्बरता आधुनिकता का नहीं अतीत की पाशविकता की याद दिलाती है।
हालाँकि पीछे देखने और जाने की ज़िद समाज के एक हिस्से में हमेशा रही है, मगर मंदिर-मस्जिद विवाद ने इसे नई रफ़्तार दे दी। शाहबानो के मामले ने इसमें अपना योगदान दिया। अयोध्या में मंदिर बनाने के अभियान के तहत बाबरी मस्जिद को ढहाना इसका महत्वपूर्ण पड़ाव था।
इस बीच नस्लवाद ने राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनना शुरू कर दिया। अवाम को राष्ट्रवाद के नाम पर भ्रमित किया जाने लगा। इस राष्ट्रवाद के चोले में ब्राम्हणवाद भी छिपा बैठा था। पिछले चार साल में वह भी अपने नुकीले दाँतों और पैने नाख़ूनों के साथ सामने आ गया है।
ऐसा नहीं है कि केवल हिंदुस्तान में ही पीछे लौटने की धुन सवार है। मानो पूरी दुनिया ही पागल हुई जा रही है। पहले लगता था कि पाकिस्तान या इस्लामिक दुनिया ही कट्टरपंथ की चपेट में आकर अतीतोन्मुखी हो गई है, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
क्या युरोप और क्या अमेरिका, आधुनिक कहे जाने वाले मुल्कों में भी उल्टी बयार बह रही है। हर जगह नस्लवाद हावी है, हर जगह बहुसंख्यकवाद का ज़ोर है। हर कोई नफ़रत और हिंस्सा के ज़हरीले कुंड में डुबकी लगाने को बेताब नज़र आ रहा है।
आख़िर क्या वजह है इसकी, क्यों भारत चार साल में चालीस साल पीछ चला गया है और चार सौ साल पीछे जा सकता है?
वज़हें कई हैं, लेकिन सबसे बड़ी वज़ह तो आर्थिक है। दुनिया भर में मंदी का दौर चल रहा है। लगभग एक दशक पहले अमेरिका के सब प्राइम संकट के बाद जो संकट पैदा हुआ था, वह तात्कालिक तौर पर तो सुलट गया था, मगर उसके असरात बने हुए हैं।
मंदी की मार ने रोज़गार कम कर दिए हैं और व्यापार भी ठहर सा गया है। ऐसे में नस्लवाद की राजनीति करने वाले की पौ बारह हो गई है। वे लोगों की नस्ली, धार्मिक और जातीय भावनाएं उभारकर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं।
पिछले चार साल में हिंदुस्तानी राजनीति में ये प्रवृत्ति एकदम से बढ़ी है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति ने लोगों का ध्यान आगे के बारे में सोचने के बजाय अतीत के झगड़ों की तरफ केंद्रित कर दिया है।
उन्हें डराया जा रहा है कि उनका धर्म ख़तरे में है और उनके आर्थिक अवसर दूसरों को मिल रहे हैं। ये डर उन्हें नफ़रत र गुस्से से भर रहा है। वे विवेकशून्य हो गए हैं।
केवल चार सालों में चालीस साल कैसे पीछे चला गया हिंदुस्तान?
In only four years, India has gone back by 40 years
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