बड़ी चर्चा है कि पुण्यप्रसून वाजपेयी का कार्यक्रम मास्टर स्ट्रोक लोग नहीं देख पा रहे हैं या ठीक से नहीं देख पा रहे हैं। यानी प्रसारण के साथ छेड़छाड़ की जा रही है। या तो उसे पूरी तरह से ब्लैक आउट किया जा रहा है या फिर वह दिख भी रहा है तो वैसा नहीं जैसा दिखना चाहिए।
एबीपी न्यूज़ पर हर दिन प्रसारित होने वाला मास्टर ब्लॉस्टर बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम है और इसके सत्ता विरोधी तेवर सत्ता के गलियारों में हलचल पैदा करने लगे हैं। ज़ाहिर है कि ये सत्ताधारी और उनके समर्थकों की आँखों की किरकिरी बन गया है।
जब तीखी आलोचना करने वाला कोई कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगता है तो शासकों को डर भी लगने लगता है और उन्हें क्रोध भी बहुत आता है। ऐसी सूरत में वे इस तरह की कोशिशों में जुट जाते हैं कि वह या तो बंद हो जाए या फिर ऐसा इंतज़ाम कर दिया जाए कि कोई देख ही न पाए।
रवीश कुमार के कार्यक्रम के साथ भी यही सलूक किया जा रहा है। बल्कि ये कहना चाहिए कि एनडीटीवी को ही अनुपलब्ध बनाने की पूरी कोशिश की गईं और वे काफ़ी हद तक सफल भी रहीं। आप देश के बहुत सारे हिस्सों में हिंदी एनडीटीवी नहीं देख सकते। इसकी एक वज़ह ये हो सकती है कि उसके मालिकान डिस्ट्रीब्यूटरों को पैसा नहीं दे रहे हों, मगर ये भी हक़ीक़त है कि उसे साज़िशन जनता की निगाहों से गायब किया जा रहा है।
सत्ता विरोधी कार्यक्रमों के प्रति ये रवैया पहले की केंद्र सरकारों ने नहीं किया। ये पहले राज्यों में ही होता था। तमिलनाडु के बारे में तो सब जानते ही हैं कि वहाँ किस तरह दोनों प्रमुख राजनीतिक दल केबल इंडस्ट्री को नियंत्रित करके अघोषित सेंसरशिप लागू करते थे।
पंजाब में जब अकाली दल और भाजपा की सरकार थी तो वहाँ भी केवल वही चैनल चल सकता था जो उसकी बुराई न करे। पंजाब के केबल डिस्ट्रीब्यूशन पर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल का नियंत्रण था और वे इसका इस्तेमाल विरोधी विचारों वाले चैनलों को सेंसर करने के लिए करते थे।
देश के कई अन्य हिस्सों से भी इस तरह के समाचार आते रहे हैं। छत्तीसगढ़, राजस्थान के नाम इस संदर्भ में गिनाए जा सकते हैं। यहाँ तक कि गुजरात में भी राजनीतिक दलों ने इस हथकंडे का इस्तेमाल किया। कई जगह स्थानीय नेताओं ने केवल अपने चुनाव क्षेत्रों में उन चैनलों पर पाबंदी लगवा दी, जिन पर उनके ख़िलाफ़ कोई ख़बर दिखलाई जा रही थी।
विडंबना देखिए कि जो लोग इमर्जेंसी की बढ़-चढकर निंदा-भर्त्सना करते हैं, वे न केवल चुप हैं बल्कि मीडिया पर पाबंदी लगाने की साज़िशों में मुब्तिला हैं। वे और उनके समर्थक स्थानीय स्तर पर दबाव बनाकर कार्यक्रमों और चैनलों के प्रसारण को बाधित कर रहे हैं। डीटीएच पर उनका वश नहीं है इसलिए वह अप्रभावित है, मगर क्या पता कब केंद्र डीटीएच ऑपरेटरों को भी ऐसा करने के लिए मजबूर कर दे।
लोग जिसे अघोषित आपातकाल कह रहे हैं वह यही है। बिना कुछ कहे मीडिया को सेंसर किया जा रहा है। लोगों को पता ही नहीं चल रहा कि क्या हो रहा है मगर उन्हें अन्य विचारों और समाचारों के दूसरे पक्षों से वंचित किया जा रहा है।
इसका दुखद पहलू ये है कि इसका कोई उपाय नहीं है। इसकी कोई शिकायत कहीं नहीं कर सकता, क्योंकि तकनीकी खराबी का बहाना बनाकर बचा जा सकता है। फिर सरकार से न केबल ऑपरेटर ल़ड़ सकते हैं और न ही टीवी चैनल।
Which was in the states before is now happening at the national level
जो पहले राज्यों में होता था अब राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है
Written by चतुरसेन