लाल किले की प्राचीर से नरेंद्र मोदी एक बार फिर गरजे। अपने चिर-परिचित या घिसे-पिटे अंदाज़ में उन्होंने देशवासियों को लुभाने की भरसक कोशिश की। उन्होंने हाथ नचाए,, तरह-तरह की भाव-भंगिमाएं बनाईं, कभी तीखे तो कभी विनम्रता भरे तेवर दिखाए,, मक़सद सिर्फ़ एक था, एक बार सत्ता और दे दीजिए।
कुछ लोगों की नज़र में ये उनका विदाई भाषण था तो कुछ ने इसे चुनावी भाषण करार दिया। कुछ का कहना था कि उत्साह ज़्यादा था, विश्वास कम, तो एक जमात उनके प्रदर्शन पर तालियाँ बजाने वाली भी थी। इनमें उन बच्चों को शामिल नहीं किया जा रहा जिन्हें रटा-पढ़ा कर लाया गया था।
मोदी के भक्तों की संख्या अभी भी काफ़ी है। वे निराश ज़रूर हैं मगर दूसरे विकल्पों के बारे में सोचना भी उन्हें पाप लगता है। वे एक व्यक्ति, एक विचार और एक पार्टी के प्रति समर्पित हैं। चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए, उन्हें मोदी की हर बात पर ताली बजाना है। लिहाज़ा उन्हें छोड़ देना चाहिए।
ऐसे में सवाल उठता है कि पीएम के भाषण को क्या समझा जाए, कैसे देखा जाए। इसमें कोई शक़ नहीं है कि वह पूरी तरह से राजनीतिक भाषण था और उसका निशाना चुनाव ही हैं। इसीलिए वे एक ओर विपक्ष पर हमले कर रहे थे तो दूसरी ओर मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाएं कर रहे थे।
लेकिन मोदी और उनके समर्थकों के लिए दुख की बात ये है कि चार साल में उनके ईष्ट देवता पूरी तरह से नाक़ाम रहे हैं। वे एक मोर्चे पर भी कामयाब नहीं हुए हैं। उन्होंने अपने वादों पर तो अमल नहीं किया ही है, मगर उन मोर्चों पर भी फिसड्डी साबित हुए हैं, जिनके बारे मे उनका दावा था कि वे माहिर हैं।
अर्थव्यवस्था ठीक नहीं चल रही है। बाज़ारों में मुर्दनगी छाई हुई है। व्यापार-उद्योग ठंडे पड़े हैं और किसानों की हालत खस्ता है। नए रोज़गार पैदा नहीं हो रहे हैं, ऊपर से पकौड़े तलने का सुझाव जले पर नमक छिड़क गया है। पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमतें नियंत्रण से बाहर हो चुकी हैं, जिनसे महँगाई को पंख लग गए हैं।
डॉलर के मुक़ाबले गिरता ही जा रहा है। बैंकिंग व्यवस्था कौ चौपट करने में उन्होंने कोई कमी बाक़ी नहीं रखी है, इसीलिए अब विश्व बैंक उन्हें बेचने का सुझाव दे रहा है। शायद अर्थव्यवस्था के नियामकों ने इसी इरादे से बैंकों का ये अभूतपूर्व संकट पैदा किया है।
अर्थव्यवस्था के अन्य सूचकांकों की बात करनी बेकार है। सिर्फ़ शेयर बाज़ार बेवज़ह उछले जा रहा है, शायद विदेशी निवेशक मुनाफ़ा वसूली के लिए ये समय माफ़िक मानकर लगे पड़े हैं। देशी निवेशको ने हाथ पीछे खींच लिए हैं।
प्रधानमंत्री का ये दावा किसी के गले नहीं उतर रहा है कि उन्होंने किसानों की आय को दोगुना करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है। बढ़ाया ज़रूर है मगर उतना नहीं जितने का दावा किया जा रहा है।
अब ओबामा केयर की नकल पर उन्होंने आयुष्मान भारत की योजना से लुभाने की जो कोशिश की है वह भी छलावा ही है। वे शायद इसे मनरेगा की तरह गेम चेंजर मानकर चल रहे हैं। लेकिन सब समझ रहे हैं कि पब्लिक हेल्थ सिस्टम को बरबाद करके ये क़दम उठाया भी गया है तो बीमा कंपनियों और निजी क्षेत्र के अस्पतालों को सहयोग देने के लिए। ज़ाहिर है कि ये चुनाव वैतरणी पार करवाने में मदद करेगा इसमें संदेह है।
बिल्कुल साफ़ है कि उनकी जुमलेबाज़ियों को लोग समझ चुके हैं और उन पर शायद ही यकीन करें। अलबत्ता ये ज़रूर है कि चुनाव को अगर उन्मादी माहौल में ढकेल दिया गया तो फिर बाज़ी किसी के भी हाथ में लग सकती है। किसी के भी हाथ में इसलिए कह रहा हूँ कि हो सकता है कि आम वोटर उनकी चालों में न आए और अपने विवेक से वोट करे।
अब नई जुमलेबाज़ियों के दम पर पाँच साल माँगते नरेंद्र मोदी