सरकारी दबाव में संपादकों और वरिष्ठ पत्रकारों का सर कलम करने का सिलसिला जारी है। अब एबीपी न्यूज़ उसका शिकार बना है। सरकारी दबाव में आकर एक झटके में चैनल के प्रबंध संपादक मिलिंद खांडेकर और स्टार ऐंकर पुण्यप्रसून वाजपेयी की विदाई हो गई।
हालाँकि दोनों ने अभी तक संस्थान छोड़ने की वजहें नहीं बताई हैं और न ही चैनल के प्रबंधन ने ही अपनी तरफ से कुछ बताना ज़रूरी समझा है। लेकिन ये तो स्पष्ट है कि सब कुछ दबाव में हुआ है और ये दबाव सत्ता के शिखर से ही आया होगा।
अनुमान ये है कि सरकार को चैनल के तेवर रास नहीं आ रहे थे और न ही पसंद आ रहे थे उसके तेज़तर्रार ऐंकर। सबसे ज़्यादा उसकी आँखों में चुभ रहा था प्राइम टाइम शो मास्टर स्ट्रोक। इस अकेले कार्यक्रम ने सरकार की बैंड बजा रखी थी। ऐसे में आश्चर्य नहीं होगा यदि उसने चैनल के मालिकान को साफ कह दिया हो कि कार्यक्रम बंद कर दिया जाए।
मिलिंद ने ऐसा करने के बजाय इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा क्योंकि पुण्यप्रसून को वही लाए थे और ये कार्यक्रम भी उन्होंने ही शुरू करवाया था। अब चूँकि पूरा टंटा मास्टर स्ट्रोक कों बंद करने को लेकर ही था इसलिए पुण्यप्रसुन की भी बलि चढ़नी ही थी।
अभिसार अभी हटाए नहीं गए हैं मगर उनसे ऐंकरिंग छीन ली गई है। बताया जा रहा है कि उनको ऑफ एयर कर दिया गया है। उनका मामला ये रहा होगा कि वे सरकार और उसके चमचे पत्रकारों की खुलकर आलोचना करने में लगे हुए थे इसलिए वे भी निशाने पर ही थे।
वैसे एकाध वेबसाइट का कयास ये भी है कि प्रधानमंत्री अपने छत्तीसगढ़ दौरे के कवरेज से नाखुश थे और वे चैनल को सबक सिखाने का मन बना चुके थे। एबीपी न्यूज़ ने पोलपट्टी खोल दी थी कि जिस महिला से उन्होंने बातचीत की थी उसे सिखाया-पढ़ाया गया था। यानी सब कुछ दिखावटी था, फर्जी था।
अब प्रधानमंत्री को इस तरह की चीज़ें पसंद नहीं आती, ये सब जानते ही हैं। ये उनके लिए बर्दाश्त के बाहर की चीज़ है कि कोई उनसे जुड़े सच जनता के सामने रख दे। इसलिए खांडेकर-पुण्यप्रसून को हटवाने में उनकी भूमिका का होना उतना ही तय लग रहा है जितना कि सूरज का पूरब से निकलना।
आनंदबाज़ार पत्रिका समूह वैसे तो अच्छी पत्रकारिता के लिए जाना जाता है, मगर ज़्यादा दबाव पड़ने पर झुकने की प्रवृत्ति से वह भी बचा नहीं है। ख़ास तौर पर पिछले चार साल में उसने कई मौक़ों पर झुकने के संकेत दिए हैं। इसलिए बहुत मुमकिन है कि पीएमओ से संकेत मिलते ही उसने खांडेकर के सामने ऐसी शर्ते रख दी हों जो उन्हें मान्य न रही हों।
देखा जाए तो एबीपी न्यूज़ सरकार की आँखों में खटक रहा था। एनडीटीवी के अलावा यही एक चैनल है जिसमें सरकार की आलोचना करने वाली कुछ रिपोर्ट और कार्यक्रम देखने को मिल जाते हैं। बीच में वह भी मोदीमय हो गया था, मगर वह दूसरे चैनलों की तरह सरकार और मोदी के प्रति भक्ति-भाव का प्रदर्शन निर्लज्जता के साथ नहीं करता था।
शायद यही वजह है कि सरकार को वे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। अगर ये मान भी लिया जाए कि एबीपी की न्यूज़ ग़लत थी, तो भी उसकी वज़ह से मैनेजिंग एडिटर की नौकरी का जाना ग़लत था। ये बहुत मामूली सी बात थी और मोदी जवाबतलब करवा सकते थे। लेकिन जिस व्यक्ति के चरित्र में प्रतिशोध कूट-कूटकर भरा हो, वह तो बलि लेकर ही मानेगा और यही हुआ भी।
पुण्यप्रसून वाजपेयी के मास्टर स्ट्रोक पर सरकार की कोपदृष्टि पहले से थी। वाजपेयी का ये शो हिट था और लाखों लोग इसे देखते थे। इस कार्यक्रम का रुख़ प्रतिष्ठान विरोधी था और यही इसकी यूएसपी भी। हर चैनल पर जब भजन मंडली बैठी हो तो दर्शकों को पुण्य के कार्यक्रम में थोड़ी राहत मिल जाती थी।
लेकिन सरकार को विरोध करने वाले तो पसंद ही नहीं हैं, लिहाज़ा मास्टर स्ट्रोक के साथ-साथ पुण्यप्रसून दोनों का जाना तय हो गया था। ध्यान रहे कि मास्टर स्ट्रोक को अभी चार महीने ही हुए हैं और इतनी कम अवधि में ही उसने सरकार की नाक में दम कर दिया था।
पुण्यप्रसून चार महीने पहले ही एबीपी में आए थे। इसके पहले आज तक भी उन्हें दबाव में ही छोड़ना पड़ा था। कथित बाबा रामदेव उनसे नाराज़ हो गए थे और उन्होंने उनकी बलि लेने की ठान ली थी। पुण्य ने सार्वजनिक मंच से कहा भी था कि अब तो पीएमओ या अमित शाह क फोने सीधे न्यूज़ रूप में पहुँचने लगे हैं।
खाडेकर के पहले भी कई संपादकों की छुट्टी दबावों के बीच की जा चुकी है। ये श्रृंखला बताती है कि मीडिया की स्वतंत्रता छिन रही है। सरकार उसे स्वतंत्र रूप से काम करने के हक़ में कतई नहीं है। उसका रुख़ इमर्जेंसी वाला है। फ़र्क बस इतना है कि इमर्जेंसी की घोषणा नहीं हुई है। ऐसा लगता है कि मोदी बिना घोणणा किए ही आपातकाल को लागू किए जा रहे हैं।
एबीपी न्यूज़ पर आपदकाल, मिलिंद, पुण्यप्रसून, अभिसार पर गिरी सरकारी बिजली?
Written by रघु प्रियदर्शी
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