केजरीवाल ने आशुतोष का इस्तीफ़ा स्चीकार करने से मना कर दिया है। उन्हें और उनके बचे-खुचे साथियों को लगता है कि वे आशुतोष को मना लेंगे। हो सकता है आशुतोष मान जाएं, क्योंकि उन्होंने इस्तीफ़े की वजह निजी बताई है। उन्होंने ऐसा करके सुलह-सफ़ाई के लिए गुंज़ाइश बचाकर रखी है अन्यथा वे पार्टी और नेतृत्व पर हमला ज़रूर करते।
आशुतोष जानते हैं कि उनके पास विकल्प ज़्यादा नहीं हैं। राजनीति में जाने के बाद पत्रकारिता में वापसी कम ही हो पाती है। हो भी जाए तो विश्वसनीयता तो बिल्कुल वापस नहीं आती, भले ही आप कितनी ही कसमें न खाते रहें, निष्पक्षता साबित करने के कितने ही इम्तिहान दे दें। इसलिए मुमकिन है कि वे मान जाएं।
लेकिन मुद्दा आशुतोष के रूठने और मानने का नहीं है। असली मुद्दा तो ये है कि केजरीवाल को छोड़-छोड़कर लोग जा क्यों रहे हैं? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि केजरीवाल लोगों को अपने साथ जोड़कर क्यों नहीं रख पा रहे हैं?
ये आम बात है कि राजनीति में आने और अपनी सरकार बनने के बाद बहुत से लोगों को जब हिस्सेदारी नहीं मिलती तो वे नाराज़ होते हैं। वे विद्रोह करते हैं और फिर पार्टी को नुकसान भी पहुँचाते हैं। लेकिन आप में बिखराव की यही एक वजह नहीं है। अगर उनके बहुत करीबी समझे जाने वाली मित्र मंडली भी उनका साथ निभा पाने में खुद को अक्षम पा रही है तो इसमें केजरीवाल की भूमिका है।
केजरीवाल की निरंकुश शैली की शिकायतें बहुत लोग बहुत बार कर चुके हैं। वे खुद को और अपने निजी एजेंडे को सर्वोपरि रखकर चलते हैं और दूसरों की परवाह नहीं करते। यही नहीं, वे असुरक्षाबोध से भी पीड़ित हैं। उन्हें लगता है कि कहीं उन्हें ही न हटा दिया जाए। उनके इस व्यवहार की वजह से तमाम अच्छे लोग उन्हें छोड़कर चले गए।
दरअसल, केजरीवाल और उनके जिगरी यार मनीष सिसोदिया पार्टी और सरकार को अपने जेबी एनजीओ की तरह ही चला रहे हैं। एक अच्छा एनजीओ कुछ अच्छे उद्देश्यों को लेकर चलता है और वह उनकी पार्टी एवं सरकार दोनों में दिखता है। मोहल्ला क्लीनिक एवं शिक्षा व्यवस्था में सुधार इसके उदाहरण हैं। मगर इसके बाद मामला गोल हो जाता है।
ज़्यादातर एनजीओ एक या दो व्यक्तियों के इर्द गिर्द घूमता है। वही उसके नियंता होते हैं। यही पैटर्न आम आदमी पार्टी में भी अपना लिया गया है। बाक़ी सब कार्यकर्ता हैं। एनजीओ में तो ये चल जाता है, मगर राजनीति में नहीं। यहाँ तो हर कोई सत्ता में हिस्सेदारी चाहता है। जिसे हिस्सेदारी नहीं मिलती वह नया रास्ता ढूँढ़ने में लग जाता है।
जेबी पार्टी बना देने की वजह से ही आप का विस्तार रुक गया है। धीरे-धीरे वह दिल्ली में भी सिमटती जा रही है। हालाँकि उसको लेकर लोगों में अभी भी हमदर्दी है और उसके शुभचिंतकों की तादाद भी अच्छी-खासी होगी। मगर यदि आज की तारीख़ में चुनाव हुए तो उसे बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है।
केजरीवाल की अपनी लोकप्रियता भी काफी गिर चुकी है। मगर पता नहीं वे किस खुशफ़हमी के शिकार हैं और न तो अपने अंदाज़ बदल रहे हैं और न ही पार्टी को कोई दिशा दे पा रहे हैं। या शायद यही उनकी सीमाएं भी हैं, जिन्हें वे लाँघ पाने में असमर्थ हैं।
अगर उन्हें आगे बढ़ना है और पार्टी को आगे बढ़ाना है तो अपनी इन सीमाओं से बाहर निकलना पड़ेगा, पुराने दोस्तों को जोड़ना होगा और नए दोस्त बनाने होंगे।
लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या ने ऐसा कर पाएंगे?
केजरीवाल के लिए आम आदमी पार्टी जेबी एनजीओ बन गई है
Written by-डॉ. मुकेश कुमार