केरल भयानक प्राकृतिक आपदा से जूझ रहा है। सौ साल के इतिहास में सबसे भीषण बारिश हुई है और उसने चौदह ज़िलों में जल प्लावन के हालात बना डाले हैं। चार सौ से ऊपर लोग बाढ और बारिश की वज़ह से मारे जा चुके हैं और करीब पाँच लाख लोग बेघरबार हो गए हैं। दो हज़ार से ऊपर बाढ़ राहत शिविरों में लाखों लोग मुसीबतों के दिन काटने की कोशिश कर रहे हैं।
टीवी पर आने वाले दृश्य दहलाने वाले हैं। ऊपर से घोषणा ये हुई है कि बारिश का एक और ख़तरनाक़ दौर शुरू होने वाला है। जिसका मतलब है और अधिक तबाही, बर्बादी। राहत और बचाव कार्यों को लेकर शिकायतें आ रही हैं। फिर बारिश और बाढ़ के गुज़रने के बाद राहत कार्यों में कमी का सिलसला शुरू होगा, जो बीमारियों का नया चरण प्रारंभ कर देगा।
साफ़ है कि केरल में हालात बहुत-बहुत गंभीर हैं, लेकिन क्या केंद्र सरकार उसे गंभीरता से ले रही है? क्या वह मलयालियों के दुख-दर्द को महसूस कर पा रही है?
अभी तक केंद्र सरकार ने जो रवैया अपना रखा है, उससे तो यही लगता है कि उसे केरल के लोगों की कोई चिंता या परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री को बहुत देर बाद केरल की सुध आई। पंद्रह अगस्त के भाषण और वाजपेयी जी के क्रिया-कर्म से फुरसत पाने के बाद उन्होंने इस राज्य का रुख़ किया।
कुछेक केंद्रीय मंत्रियों ने संक्षिप्त दौरे ज़रूर किए लेकिन न तो उन्होंने वैसी गंभीरता दिखाई और न ही बचाव एवं राहत कार्यों को गति देने के लिए पर्याप्त कदम उठाए। केरल की सरकार लगातार माँग करती रही मगर उसने मदद भेजी भी तो बहुत कम। कुल मिलाकर 260 करोड़ की।
फिर प्रधानमंत्री भी गए तो वे भी केवल पाँच सौ करोड़ देने का ऐलान करके चले आए। केरल सरकार के मुताबिक नुकसान करीब बीस हज़ार करोड़ का हुआ है और उसे चार हज़ार करोड़ तुरंत चाहिए थे। मगर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने उस पर कान नहीं धरा।
ये वही प्रधानमंत्री हैं जो संघवाद की माला जपते थे और राज्यों के अधिकारों की वकालत करते नहीं थकते थे। वे सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए तीन हज़ार करोड़ रुपए दे सकते हैं। अंबानियों और अडानियों को लाखों करोड़ की रियायतें दे सकते हैं, मगर जहां लाखों लोग जान बचाने के लिए जूझ रहे हैं उनके लिए सरकारी खज़ाने में केवल पाँच सौ करोड़ हैं।
जम्मू-काश्मीर में वाहवाही लूटनी थी और अपनी राजनीतिक ज़मीन मज़बूत करनी थी तो खज़ाना खोल दिया गया। मगर केरल में तो उनके लिए कुछ है ही नहीं, इसलिए उसकी परवाह क्यों करना, मरने दो लोगों को। काँग्रेसियो और कम्युनिस्टों को चुनने वालों की ज़िंदगी उनके लिए कोई मायने नहीं रखते।
विडंबना देखिए कि खाड़ी के देश मदद के लिए ज़्यादा तत्परता दिखा रहे हैं। ये ठीक है कि बहुत सारे मलयाली वहाँ काम करते हैं और उनका दबाव उन देशों पर काम कर रहा होगा, मगर इससे उन्हें ये दिखाने का मौक़ा मिल रहा है कि वे भारत सरकार की तरह उनकी उपेक्षा नहीं कर रहे हैं।
ये बहुत ही दुखद है कि केंद्र सरकार आपदाओं जैसे मौक़ों पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रही। उसकी इस हरकत से दक्षिण और दिल्ली की दूरियाँ और बढ़ेंगी।
क्योंकि केरल में विपक्षी दल की सरकार है...
Written by-रवि सुधीन्द्रन
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