एक यात्रा, कुछ अनुभव और ज़िंदगी को नए नज़रिए से देखने या दिखाने की कोशिशें- फिल्मी दुनिया का नया फ़ार्मूला है या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि फार्मूला तो पुराना है मगर इस समय खूब चल रहा है। एक के बाद एक ऐसी कई फ़िल्में आई हैं जिन्होंने ज़िंदगी और यात्रा के इस रूपक को इस्तेमाल करके कुछ कहने की कोशिश की है और मोटे तौर पर वे कामयाब भी रही हैं।
बॉक्स ऑफिस पर भले ही वे धमाल न मचा पाई हों, मगर दर्शकों के एक वर्ग एवं समीक्षकों को उन्होंने ज़रूर प्रभावित किया है। व्यावसायिक स्तर पर भी वे कमोबेश ठीक-ठाक ही रही हैं। हाल में रिलीज़ हुई कारवाँ भी इसी साँचे में ढली एक फ़िल्म है।
एक यात्रा है जो एक बस दुर्धटना में मारे गए दो लोगों के शवों की अदला-बदली की वज़ह से शुरू होती है और ख़त्म होती है कुछ अनसुलझे-अनजाने रिश्तों की पहचान के साथ। कुछ ग़लतफ़हमियाँ दूर होती हैं और जीवन को अपनी पसंद से जीने के कुछ नए सबक मिलते हैं।
इरफ़ान ख़ान की ये शायद तीसरी फ़िल्म है जिसमें वे किसी न किसी बहाने यात्रा करते हैं। पहले पीकू फिर क़रीब क़रीब सिंगल और अब कारवाँ। किरदार भी कमोबेश एक जैसे और अभिनय का अंदाज़ भी वही। लेकिन इरफ़ान इसके बावजूद फिल्म में जान डाल देते हैं। उनके वन लाइनर कमाल करते हैं और स्वाभाविक अभिनय का जादू दोहराए जाने के बावजूद फिल्म में जान डाल देता है।
कारवाँ में वे एक रूढ़िवादी मुसलमान हैं जो अपने दोस्त के पिता की लाश के चक्कर अपनी वैन के साथ एक अनचाहे सफ़र पर निकलते हैं। उनके साथ हैं इस फिल्म में अविनाश के रूप में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले दिलक़ीर सलमान। रास्ते में उनके कारवाँ में एक और लड़की शामिल हो जाती है तान्या यानी मिथिला पालकर।
दिलक़ीर दक्षिण की फ़िल्मों में अपना जलवा दिखा चुके हैं, मगर अपनी पहली हिंदी फ़िल्म में भी उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। वे एक मँजे हुए अभिनेता की तरह स्कीन पर नज़र आते हैं और कहीं भी ये महसूस नहीं होने देते कि इरफ़ान के सामने कमज़ोर पड़ रहे हैं।
फिल्म दक्षिण भारत यानी कर्नाटक-तमिलनाडु एवं केरल के कुछ बहुत ही खूबसूरत इलाक़ों के बीच से गुज़रती है। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य के दृश्य जहाँ फिल्म में रंग भरते हैं, वहीं कथानक के समानांतर जीवन के नए मायनों को रूपायित भी करते चलते हैं।
तीखे व्यंग्य वाली ब्लैक कॉमेडी से भरी ये फिल्म बहुत कसी हुई स्क्रिप्ट पर चलती है। वैसे भी निर्देशक आकर्ष खुराना मूल रूप पटकथा एवं संवाद लेखक हैं इसलिए उनसे ये अपेक्षा की ही जानी चाहिए थी कि अपनी इस पहली फ़िल्म को कम से कम इन मामलों मे ढीली नहीं पड़ने देंगे।
उन्होंने कहानी को कहने के लिए कोई नया ढंग नहीं चुना और न ही कोई नया प्रयोग किया है। ऐसा लगता है कि उनका भरोसा कहानी की रवानगी पर ज़्यादा है इसलिए तेज़ी से घटती घटनाएं दर्शकों को कुछ और सोचने का मौक़ा नहीं देतीं।
फ़िल्म का एक बहुत ही सशक्त पक्ष है उसके गाने। छोटा सा फसाना, साँसें, भर दे बहार बहुत सुरीले हैं। इन्हें लिखने वालों को दाद दी जानी चाहिए। ख़ास तौर से टाइटल साँग बहुत ही मानीखेज़ है।
ज़िंदगी के सफ़र को नए नज़रिए से देखने का नाम है कारवाँ
Written by उत्कृष्ट कुमार
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