महाराष्ट्र में फ़ैसले उलटने-पलटने का समय - महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से एक के बाद एक अच्छी ख़बरें आ रही हैं।
नई सरकार पिछली सरकार के विवादास्पद कारनामों की समीक्षा कर रही है और ऐसा लगता है कि वह उसके कई निर्णयों को पलटने जा रही है। इसके संकेत एनसीपी के वरिष्ठ नेता शरद पवार ने भी दिए हैं।
दरअसल, काँग्रेस और एनसीपी दोनों चाहते हैं कि महाअघाड़ी की सरकार कम से कम तीन ऐसे मामलों में तुरंत फैसला करे जो कि सरासर दुराग्रहों से प्रेरित थे।
इनमें से दो फ़ैसले वे हैं जिनमें राज्य सरकार ने 2018 में दस एक्टिविस्ट को गिरफ़्तार कर लिया था और लगातार ज़मानत तक नहीं होने दी थी।
तीसरा फ़ैसला जज लोया की संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई मौत की जाँच करवाना है। जज लोया सोहराबुद्दीन फेक एनकाउंटर मामले की जाँच कर रहे थे।
तीसरा फ़ैसला जज लोया की संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई मौत की जाँच करवाना है। जज लोया सोहराबुद्दीन फेक एनकाउंटर मामले की जाँच कर रहे थे।
अमित शाह इस मामले में अभियुक्त थे। बाद में आए जज ने उन्हें आरोपमुक्त कर दिया और अब वे चौड़े होकर घूमते हैं।
ये दोनों मामले एल्गार परिषद की बैठक और भीमा कोरेगाँव की हिंसा से जुड़े हुए हैं।
ये दोनों मामले एल्गार परिषद की बैठक और भीमा कोरेगाँव की हिंसा से जुड़े हुए हैं।
सरकार ने षड़्यंत्रपूर्वक एल्गार परिषद में भाग लेने वाले इन एक्टिविस्ट को माओवादियों से जोड़कर सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश रचने, भारत की संप्रुभता को अस्थिर करने और लोगों को भड़काने के मनगढ़ंत आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया था।
उसका आरोप था कि इन लोगों ने माओवादियों के कहने पर परिषद की बैठक का आयोजन किया था। उन्होंने परिषद की बैठक के बाद भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के लिए भी ज़िम्मेदार ठहरा दिया था।
ये सारे आरोप निराधार थे और अगर आप पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखेंगे तो समझ जाएंगे कि केंद्र सरकार के इशारे पर गिरफ़्तारी की गई थी। अव्वल तो ये कि एल्गार परिषद का आयोजन दो पूर्व न्यायाधीशों ने किया था।
इनमें से एक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी बी सावंत थे, जिन्हें हर जगह सम्मान की नज़र से देखा जाता है। एल्गार का मतलब होता है खुला निमंत्रण या खुला ऐलान।
वे इस इस बैठक के ज़रिए संविधान को बचाने के लिए अभियान छेड़ रहे थे। इन्होंने खुल्लमखुल्ला स्वीकार किया है के वे परिषद के आयोजनकर्ता थे।
उन्होंने ये भी कहा कि उन्होंने ऐसा ही आयोजन 2015 में किया था और उसका एजेंडा था संघ मुक्त भारत का निर्माण।
लेकिन मज़े की बात ये है कि इन दोनों को पुलिस ने अरेस्ट नहीं किया, बाक़ी कार्यकर्ताओं को धर लिया। इस गिरफ्तारी को इस पृष्ठभूमि के साथ देखना चाहिए कि मोदी एंड शाह का गुजरात में मानवाधिकार रिकॉर्ड बहुत खराब था।
उनके राज में कई फर्ज़ी एनकाउंटर हुए थे। गुजरात दंगों में भी उनकी भूमिका संदेहास्पद थी। उनके इन कृत्यों को उजागर करने में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ज़बर्दस्त भूमिका थी, इसलिए वे इनके पीछे पड़े थे, इनसे बदला लेना चाहते थे।
ध्यान देने की बात ये भी है कि पुलिस को इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ एक भी ठोस सबूत नहीं मिले। उसने सबूत के नाम पर अदालत में जो कुछ पेश किया वह हास्यास्पद तो था ही, मनगढ़ंत भी था।
टालस्टाय की प्रसिद्ध कृति वार एंड पीस को घर में रखने को भी उसने माओवाद से जोड़ दिया था। सुनवाई कर रहे जज ने इससे जुड़ा सवाल करके राष्ट्रीय स्तर पर अपना मज़ाक उड़वा लिया था।
अब थोड़ी बात भीमा कोरेगाँव की हिंसा की भी कर ली जाए। भीमा कोरेगाँव में बड़ी संख्या में दलितों के जमावड़े को सरकार और संघ परिवार ने अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देखा।
ये वही समय था जब रोहित वेमुला की मौत और फिर दलितों पर हुए एक बाद एक हमलों ने दलितों को उत्तेजित कर दिया था। वे आदोलन पर उतारू थे, जिससे संघ की तथाकथित हिंदू एकता छद्म टूट रहा था।
ज़ाहिर है वे किसी भी कीमत पर इसे सफल नहीं होने देना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिंसा करवाई और फिर इस हिंसा को एल्गार परिषद में भाग लेने वालों के सिर मढ़ दिया।
चूँकि राज्य और केंद्र में सरकार उन्हीं की थी इसलिए दंगाईयों का कुछ नहीं हुआ, वे छुट्टा घूमते रहे, बल्कि सम्मानित भी होते रहे।
इनमें मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिडे के नामों से सभी वाकिफ़ हैं। ये दोनों नेता ज़हर उगलने के मामले में कुख्यात हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद उन्हें बख्श दिया गया।
कहा जाता है मोदी संभाजी भिडे को तो अपना गुरु भी मानते हैं।
बहरहाल, अब महाअघाड़ी की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह झूठे आरोप वापस ले और कार्यकर्ताओं को रिहा करवाए। साथ ही भीमा कोरेगाँव की हिंसा की निष्पक्ष जाँच करवाकर दोषियों को दंड दिलवाए।
माना कि शिवसेना के लिए ये फ़ैसला लेना थोड़ा इसलिए कठिन होगा कि वह उस सरकार में शामिल थी जिसने ये कुकृत्य किए थे।
लेकिन अगर वह सचमुच में मोदी-शाह की दादागीरी का मुक़ाबला करना चाहती है तो उसके लिए ये एक बड़े अस्त्र की तरह भी काम कर सकता है।
वैसे भी ऐसा करने से उसकी छवि सुधरेगी और दलितों की हमदर्दी भी वह जीत सकती है।
रही बात काँग्रेस और एनसीपी की तो उनकी तो नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे शिवसेना को इसके लिए राज़ी करें। देश भर में कार्यकर्ताओं का जो दमन केंद्र सरकार कर रही है, उसका प्रतिरोध वे यहाँ से कर सकती हैं।
इससे उनके शिवसेना के साथ सरकार बनाने का औचित्य भी सिद्ध हो सकता है।
जस्टिस लोया की मृत्यु के मामले मे तो शिवसेना पहले से ही तैयार है, इसलिए उसमें कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी। अलबत्ता इससे वे अमित शाह पर दबाव बनाने में ज़रूर कामयाब हो सकते हैं,
क्योंकि मामला खुला तो शाह को अदालत के सामने पेश होना पड़ सकता है, जो बड़ी ख़बरें बनेगी।
Prof.(Dr.) Mukesh Kumar
उसका आरोप था कि इन लोगों ने माओवादियों के कहने पर परिषद की बैठक का आयोजन किया था। उन्होंने परिषद की बैठक के बाद भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के लिए भी ज़िम्मेदार ठहरा दिया था।
इनमें से एक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी बी सावंत थे, जिन्हें हर जगह सम्मान की नज़र से देखा जाता है। एल्गार का मतलब होता है खुला निमंत्रण या खुला ऐलान।
वे इस इस बैठक के ज़रिए संविधान को बचाने के लिए अभियान छेड़ रहे थे। इन्होंने खुल्लमखुल्ला स्वीकार किया है के वे परिषद के आयोजनकर्ता थे।
उन्होंने ये भी कहा कि उन्होंने ऐसा ही आयोजन 2015 में किया था और उसका एजेंडा था संघ मुक्त भारत का निर्माण।
लेकिन मज़े की बात ये है कि इन दोनों को पुलिस ने अरेस्ट नहीं किया, बाक़ी कार्यकर्ताओं को धर लिया। इस गिरफ्तारी को इस पृष्ठभूमि के साथ देखना चाहिए कि मोदी एंड शाह का गुजरात में मानवाधिकार रिकॉर्ड बहुत खराब था।
उनके राज में कई फर्ज़ी एनकाउंटर हुए थे। गुजरात दंगों में भी उनकी भूमिका संदेहास्पद थी। उनके इन कृत्यों को उजागर करने में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ज़बर्दस्त भूमिका थी, इसलिए वे इनके पीछे पड़े थे, इनसे बदला लेना चाहते थे।
ध्यान देने की बात ये भी है कि पुलिस को इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ एक भी ठोस सबूत नहीं मिले। उसने सबूत के नाम पर अदालत में जो कुछ पेश किया वह हास्यास्पद तो था ही, मनगढ़ंत भी था।
टालस्टाय की प्रसिद्ध कृति वार एंड पीस को घर में रखने को भी उसने माओवाद से जोड़ दिया था। सुनवाई कर रहे जज ने इससे जुड़ा सवाल करके राष्ट्रीय स्तर पर अपना मज़ाक उड़वा लिया था।
अब थोड़ी बात भीमा कोरेगाँव की हिंसा की भी कर ली जाए। भीमा कोरेगाँव में बड़ी संख्या में दलितों के जमावड़े को सरकार और संघ परिवार ने अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देखा।
ये वही समय था जब रोहित वेमुला की मौत और फिर दलितों पर हुए एक बाद एक हमलों ने दलितों को उत्तेजित कर दिया था। वे आदोलन पर उतारू थे, जिससे संघ की तथाकथित हिंदू एकता छद्म टूट रहा था।
ज़ाहिर है वे किसी भी कीमत पर इसे सफल नहीं होने देना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिंसा करवाई और फिर इस हिंसा को एल्गार परिषद में भाग लेने वालों के सिर मढ़ दिया।
चूँकि राज्य और केंद्र में सरकार उन्हीं की थी इसलिए दंगाईयों का कुछ नहीं हुआ, वे छुट्टा घूमते रहे, बल्कि सम्मानित भी होते रहे।
इनमें मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिडे के नामों से सभी वाकिफ़ हैं। ये दोनों नेता ज़हर उगलने के मामले में कुख्यात हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद उन्हें बख्श दिया गया।
कहा जाता है मोदी संभाजी भिडे को तो अपना गुरु भी मानते हैं।
बहरहाल, अब महाअघाड़ी की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह झूठे आरोप वापस ले और कार्यकर्ताओं को रिहा करवाए। साथ ही भीमा कोरेगाँव की हिंसा की निष्पक्ष जाँच करवाकर दोषियों को दंड दिलवाए।
माना कि शिवसेना के लिए ये फ़ैसला लेना थोड़ा इसलिए कठिन होगा कि वह उस सरकार में शामिल थी जिसने ये कुकृत्य किए थे।
लेकिन अगर वह सचमुच में मोदी-शाह की दादागीरी का मुक़ाबला करना चाहती है तो उसके लिए ये एक बड़े अस्त्र की तरह भी काम कर सकता है।
वैसे भी ऐसा करने से उसकी छवि सुधरेगी और दलितों की हमदर्दी भी वह जीत सकती है।
रही बात काँग्रेस और एनसीपी की तो उनकी तो नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे शिवसेना को इसके लिए राज़ी करें। देश भर में कार्यकर्ताओं का जो दमन केंद्र सरकार कर रही है, उसका प्रतिरोध वे यहाँ से कर सकती हैं।
इससे उनके शिवसेना के साथ सरकार बनाने का औचित्य भी सिद्ध हो सकता है।
जस्टिस लोया की मृत्यु के मामले मे तो शिवसेना पहले से ही तैयार है, इसलिए उसमें कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी। अलबत्ता इससे वे अमित शाह पर दबाव बनाने में ज़रूर कामयाब हो सकते हैं,
क्योंकि मामला खुला तो शाह को अदालत के सामने पेश होना पड़ सकता है, जो बड़ी ख़बरें बनेगी।