देश भर में दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं मगर खुद को दलितों का मसीहा कहने वाले नेता सत्ता की मलाई चाटने में व्यस्त हैं। वे निंदा भर्त्सना तो दूर कोई बयान तक नहीं दे रहे, दलितों पर हो रहे ज़ुल्म-ओ-सितम की बात नहीं कर रहे। वे ऐसे चुप बैठे हैं जैसे कुछ हो ही नहीं रहा।
जगह-जगह से दलितों द्वारा आत्महत्या करने की कोशिशों या घोषणाओं की ख़बरें आ रहीं हैं मगर उनकी आत्माएं ऐसी सो गई हैं कि जाग ही नहीं रहीं। वे अपने शानदार निवासों और दफ़्तरों में पसरे हुए हैं। अपना और अपने बाल-बच्चों का राजनीतिक भविष्य सँवारने में लगे हुए हैं।
कोई उन दलितों से मिलने नहीं जा रहा जिन्हें दलित विरोधी गौरक्षक बेरहमी से मार-पीट रहे हैं। गुजरात के नाम पर तो मानो उनकी साँस ही अटक जाती है, मगर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में हो रही ज़्यादतियों पर भी वे चुप हैं। यहाँ तक कि उत्तरप्रदेश में जहाँ बीजेपी की सरकार नहीं है, वहाँ भी दलित अत्याचारों पर बोलने का जोखिम वे नहीं उठा रहे।
दलितों को अभी सांत्वना की ज़रूरत है, उनकी हिम्मत बढ़ाने की ज़रूरत है, उन्हें एकजुट करके संघर्ष करने के लिए तैयार करन की जरूरत है, मगर दलित सेना बनाने वाले सेनानायक का पता ही नहीं है।
राम विलास पासवान मंत्रि बनने के बाद से दलितों को भूल चुके हैं। उन्होंने अपने घर में एक तस्वीर लगा रखी है जिसमें लिखा है-मैं उस घर में दिया जलाने चला हूँ जहाँ सदियों से अँधेरा है, मगर उनका राजनीतिक चरित्र साबित करता है कि वे केवल अपने घर के अँधेरे की बात करते हैं। उनके घर का अँधेरा दूर हो चुका है तो अब बोलेने की ज़रूरत भी क्या है।
सासद बनने के लिए उदित राज बीजेपी में शामिल क्या हुए दलितों को ही भूल गए या याद भी करते हैं तो पार्टी के हित-अहित देखकर। वास्तव में वे उसके उस गुप्त एजेंडे पर काम करने में जुटे हुए हैं, जिसमें दलितों की शायद ही कोई जगह होगी।
सोचिए अगर यही लोग सत्ता मे न होते और विपक्ष की राजनीति कर रहे होते तो क्या इस तरह खामोश रहते? कतई नहीं। अभी तक तो इन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया होता। गुजरात और अन्य जगहों के कई दौरे कर चुके होते और जाने कितनी प्रेस काँफ्रेंस में सरकार पर हल्ला बोल चुके होते। मगर अब जुबान नहीं खुल रही।
यही है सुविधा की राजनीति। इसमे अवसर देखकर दलितों की बात की जाती है। इसीलिए जब बीएसपी नेता मायावती की तुलना वेश्या से की जाती है तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती, क्योंकि वे उनकी राजनीतिक विरोधी हैं और उनका समर्थन करने से मोदी एंड कंपनी नाराज़ हो सकती है।
वैसे रोहित वेमुला के मामले में भी इन नेताओं का यही हाल था। पूरा देश जब उबल रहा था तो ये नेता बीजेपी के पक्ष में चीज़ों के मैनेज करने में जुटे हुए थे। यहाँ तक संसद में भी इन्होने बेहद सतर्कता के साथ कुछ कहा था। एक तरह से वे परिदृश्य से अदृश्य ही थे।
शुक्र है कि रामदास अठावले ने मुँह खोला है। मंत्रिमंडल में रहते हुए भी उन्होंने इतना साहस तो दिखाया है कि दलितों पर हो रहे गौरक्षकों का विरोध किया। ये सवाल पूछा कि गौरक्षक ज़रूरी हैं या मानवरक्षक? यहाँ तक कि उन्होंने दलितों से बौद्ध धर्म धारण करने की अपील भी कर डाली। लेकिन कहीँ वे बीजेपी के इशारे पर तो ऐसा नहीं कर रहे, क्योंकि तमिलनाडु में दलित इस्लाम स्वीकार कर रहे हैं जो बीजेपी को कतई मंज़ूर नहीं होगा।
बीजेपी के दलित सांसदों से कोई उम्मीद करना बेकार है। वे नाम के दलित हैं। उनका चरित्र ब्राम्हणवाद के गोबर में सना हुआ है। वे तो गौरक्षकों में शामिल होकर दलितों की पिटाई भी कर सकते हैं। काँग्रेस के दलित नेता भी चुप ही रहेंगे, क्योंकि उनका हाईकमान यूपी में ब्राम्हणों के वोट लेकर सरकार बनाने का ख्वाब देखने में लगा हुआ है।
क्या पासवान और उदित राज जैसे नेताओं की अंतरात्माएं जागेंगी और वे दलितों के पक्ष में आवाज़ बुलंद करेंगे, उनके साथ खड़े होंगे, उनके अधिकारों के लिए लड़ेंगे? ऐसा नहीं लगता क्योंकि अभी चुनाव दूर हैं। वे इंतज़ार करेंगे आखिरी साल का और फिर प्रतीकात्मक विरोध करते हुए शहीद बनने की कोशिश करेंगे।
पासवान की तो यही फितरत रही है। दावा करते रहे कि गुजरात दंगों के विरोध में वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था, मगर उन्हीं मोदी की गोद में जा बैठे जिन्हें वे दंगों के लिए दोषी मानते थे। अजीत सिंह और पासवान जैसे अवसरवादी नेता भारतीय राजनीति में बिरले ही हैं।
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