जैन मुनि तरुण सागर महाराज को मैंने धार्मिक चैनलों पर प्रवचन करते हुए पहले देखा था और मुझे वह बहुत मनोरंजक लगा था। जिस अंदाज़ में वे बोलते हैं, उनके वाक्यों में जो उतार-चढ़ाव आते हैं और कभी-कभी जब वो चीखने लगते हैं तो स्क्रीन पर एक ज़बर्दस्त नाटकीयता पैदा होती है। इससे बच्चों-बूढों सभी के लिए हास्य भी पैदा हो जाता है। मैंने ये भी सुना है कि उनकी इस शैली को जैन समुदाय में बहुत पसंद भी किया जाता है और वे बहुत लोकप्रिय हो चुके हैं, बिल्कुल किसी सेलिब्रिटी की तरह। ये भी सही है कि उनके वचन कड़वे होते हैं, हालाँकि किसी बुद्धि-विवेक वाले को शायद ही जँचें। लेकिन ज़ाहिर है कि खट्टर काका उनके मुरीद हैं इसीलिए उन्होंने विधानसभा के मानसून सत्र के प्रारंभ में डेमोक्रेसी का बैंड बजाते हुए उनका प्रवचन करवा दिया।
मुझे बताया गया था कि मुनि महाराज मीडिया प्रेमी हैं और टीवी-अखबारों से उनका विशेष लगाव है। इसीलिए जब मैंने एक जैन मित्र के ज़रिए उनके एनकाउंटर के लिए समय माँगा तो फौरन हाँ में जवाब आ गया। मैं उनसे मिलने पहुँचा तो उस समय वहाँ टीवी चैननलों के रिपोर्टरों की भीड़ लगी हुई थी और मुनि महाराज प्रसन्न मुद्रा में बाइट पर बाइट दिए जा रहे थे। जब वे उनसे फारिग हुए तो मेंने बातचीत शुरू की।
तरूणजी....
(बात काटते हुए) तरूण सागर महाराज जी......
वे आप अपने भक्तों के लिए होंगे, मैं तो तरूण जी ही कहूंगा। तो तरूण जी विधानसभा में आपके भाषण को लेकर बड़ा विवाद हो गया है। कहा जा रहा है कि ये लोकतंत्र के खिलाफ़ है। आपको वहाँ बुलाकर लोकतंत्र की मर्यादा का हनन किया गया है?
जिस सदन में पता नहीं कितने आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग बैठे होंगे, मेरे जाने से उसकी मर्यादा भंग कैसे हो गई?
विधायी कार्य संविधान में दिए गए दिशा-निर्देशों से चलना चाहिए न कि साधु-संतों की वाणी से या किसी धर्म के नियम कायदों से इसलिए?
तो मैं भी तो लोकतंत्र का हिस्सा हूँ।
लोकतंत्र के तो सभी हिस्से हैं। लेकिन सबकी ज़िम्मेदारियाँ तो अलग-अलग होती हैं न?
वो कैसे?
हम वोट दे सकते हैं, अपनी पसंद की सरकार चुन सकते हैं। जन प्रतिनिधियों को ठीक से काम करने के लिए आंदोलन भी चला सकते हैं, मगर विधानसभाओं और संसद में जाकर भाषण नही दे सकते?
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इसमें मेरी ग़लती कहा है। अगर ग़लती की भी तो सीएम ने की, हरियाणा सरकार ने की। मैं तो संत हूँ, जहाँ बुलाया जाता है चला जाता हूँ।
उन्होंने तो निश्चय ही ग़लती की लेकिन लोग मानते हैं कि आपने भी की। आप तो जैन मुनि हैं। जैन धर्म के अनुसार मुनियों को इस आसार संसार से लेना-देना नहीं होना चाहिए। उन्हें तो आत्म कल्याण के लिए साधना करनी चाहिए, इस नश्वर संसार के कार्य-व्यापार में नहीं उलझना चाहिए। इस लिहाज़ से आपने क्या जैन धर्म की मर्यादा का भी उल्लंघन नहीं किया है?
देखिए मैं तो धर्म का प्रचार कर रहा हूँ, जन कल्याण के लिए काम कर रहा हूँ। जन कल्याण से ही आत्म कल्याण करने के मार्ग पर चल रहा हूँ।
आपने संतों-साधुओं के लिए विधायी कार्यों को प्रभावित करने का रास्ता खोल दिया है, जो लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं माना जा रहा?
वो कैसे?
अब तो कोई साधु वहाँ जाकर ये भी कहने लगेगा कि मनु संहिता ही ठीक थी, उसे लागू किया जाए।
इसमें बुराई क्या है। हमारे शास्त्रों के हिसाब से समाज चले यही सर्वोत्तम मार्ग होगा।
फिर तो संविधान की ज़रूरत ही नहीं रहेगी? आईपीसी, सीआरपीसी भी ख़त्म कर दी जानी चाहिए, बल्कि अदालतों को ही बंद कर दिया जाना चाहिए?
हाँ, क्यों नहीं। हमें इन सबकी जरूरत ही नहीं है। सब कुछ शास्त्रों और धर्मों के हिसाब से चले तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
यानी हमें दो हज़ार साल पीछे चला जाना चाहिए?
पीछे जाकर ही हमारा उद्धार होगा।
शायद इसीलिए आपके जाने का विरोध हो रहा है। लोग आगे जाना चाहते हैं और आप पीछे खींच रहे हैं?
मुझे जो धर्मसम्मत लग रहा है और जो मेरी बुद्धि कहती है, मैं कह रहा हूँ।
लेकिन क्या जैन धर्म इसकी अनुमति देता है?
मैं इसकी परवाह नहीं करता। धर्म की ये मेरी व्याख्या है। समय के हिसाब से धर्म भी बदलता है और साधु-संतों की भूमिका भी बदलती है।
तो आप जैन धर्म को बदल रहे हैं?
(थोड़ा हकलाते हुए) नहीं, नहीं मैं तो धर्म को पुनर्परिभाषित करने की चेष्टा कर रहा हूँ। मैं तो कहता रहता हूँ कि घर को सौ साल में गिरा देना चाहिए और धर्म को एक हज़ार साल में ख़त्म कर देना चाहिए। जैन धर्म तो ढाई हज़ार साल पुराना हो चुका है, उसकी एक्सपायरी डेट निकल गई है।
आप जैन धर्म की मूल स्थापनाओं अपरिग्रह, अहिंसा, अस्तेय, अचौर्य आदि से ही हटते दिख रहे हैं। लेकिन मैं धार्मिक मामलों में नहीं पड़ूँगा। आपने जो कुछ कहा उस पर आपसे कुछ सवाल जरूर करना चाहूँगा, क्योंकि उसको लेकर काफी विवाद हो रहा है। ये बताइए कि आपने धर्म को पति राजनीति को पत्नी बताया है, क्या ये ठीक है?
हाँ, बिल्कुल। धर्म कंट्रोल करेगा तो राजनीति धर्मानुसार चलेगी नहीं तो पागल हाथी की तरह मदमस्त हो जाएगी।
किस धर्म के अनुसार चलेगी? हिंदू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई...किस धर्म के अनुसार?
सभी धर्मों के अनुसार......
ये तो संभव ही नहीं है क्योंकि झगड़ा ही पूरी दुनिया में इसी वजह से हो रहा है। सब धर्म अपने हिसाब से देशों को चलाने की कोशिश कर रहे हैं?
मेरा विरोध करने वाले क्या चाहते हैं कि राजनीति को धर्म से मुक्त कर दिया जाए?
लोकतंत्र का तकाज़ा तो यही है। राजनीति में धर्म घुसेड़ने की वजह से ही दंगे-फसाद हो रहे हैं। वैसे भी लोकतंत्र में राजनीति को जनता नियंत्रित करती है, वही तय करती है कि देश में क्या होना चाहिए। आप जो सुझाव दे रहे हैं वह सामंतवाद के दिनों में होता था, राजा-महाराजाओं के ज़माने में होता है? लोकतांत्रिक राजनीति में धर्म की मिलावट नफरत और हिंसा पैदा कर रही है?
आप साधु-संतों को राजनीति से बाहर कर देना चाहते हैं?
साधु-संतों को राजनीति से क्या लेना-देना उन्हें तो भगवान के ध्यान में मन लगाना चाहिए। खैर आपके भाषण के कुछ और अंशों को आपत्तिजनक माना जा रहा है?
जैसे?
जैसे आपने कहा कि पति को चाहिए कि पत्नी को नियंत्रण में रखे और पत्नी पति का अनुशासन माने। अब ज़माना बदल गया है। पुरूष प्रधान समाज व्वयस्था को सब नकार रहे हैं। अब मर्द नारी का मालिक नहीं होता, स्त्री-पुरुष बराबर माने जाते हैं। स्त्री किसी की दासी नहीं होती जो उसको नियंत्रित किया जाए?
देखिए इसीलिए तो समाज का पतन हो रहा है। अगर औरतें बेलगाम होती रहीं तो स्थितियाँ और भी बिगडेंगी।
लोगों का मानना है कि स्थितियाँ इसलिए खराब थीं कि मर्द औरतों को दबाकर रखते थे। अब ये तभी बेहतर होंगी जब उन्हें बराबरी का हक़ और सम्मान मिलेगा?
आप तो उल्टी गंगा बहाने की बात कर रहे हो। संत समाज इसकी इजाज़त नहीं दे सकता।
आपसे इजाज़त कौन माँग रहा है? संविधान ने पहले ही ये दे ऱखा है और आप लोगों के विरोध के बावजूद वह उन्हें मिलता जा रहा है। वैसे बहुत से लोगों को ये भी अच्छा नहीं लगा कि आप निर्वस्त्र होकर विधानसभा में गए?
मैं निर्वस्त्र होकर नहीं गया, बल्कि मैं इसी तरह नग्न रहता हूँ। मैं दिगम्बर जैन मुनि हूँ, जिसमें साधुगण वस्त्र धारण नहीं करते।
लेकिन मुनिगण तो ऐसी सभाओं में भी नहीं जाते, उन्हें सांसारिक कार्य-कलापों से दूर रहना चाहिए? बहरहाल, लोगों को लगता है कि ये अश्लील था?
अश्लीलता तो लोगों की आँखों में होती है, उनके दिमाग़ में होती है। जो साधु-संतों के शरीर में अश्लीलता देखते हैं उनके मन अश्लील हो चुके हैं।
अगर ऐसा है तो आप लड़कियों के वस्त्रों में बुराई क्यों देखते हैं? इस हिसाब से तो लड़कियों के वस्त्रों में कोई खोट नहीं होती बल्कि जो उनके साथ बदतमीज़ियाँ करते हैं उनके मन में, उनके दिमाग़ों में होती हैं?
हाँ ये तो सही है, मैने तो इस एंगल से सोचा ही नहीं। लेकिन अगर लोगों के मन खराब हों, तो लड़कियों को सावधानी बरतनी चाहिए।
आप उन खराब मन वालों को सुधरने के लिए कह सकते हैं, उन्हें दोषी ठहरा सकते हैं, लड़कियों को ज़िम्मेदार बताना कहाँ तक ठीक है?
ठीक है अब से मैं ऐसा ही करूँगा।
आपकी एक और बात लोगों को बेहद आपत्तिजनक लगी और वह ये कि आप निष्पक्ष नहीं रहे, आपने खुद ही राजनीति करनी शुरू कर दी। आपने सरकार द्वारा शिक्षा के भगवाकरण को सही बता दिया, जबकि वह न शिक्षा के हित में है और न ही समाज के। यही नहीं आपने उसकी तमाम नाकामियों को भी अनदेखा कर दिया?
भाई मैं तो सीधा-सादा संत हूँ। मैं राजनीति के दाँव-पेंच क्या जानूँ। मुझे जितना और जो ठीक लगा कह दिया।
देखिए अभी आप राजनीति को धर्म के हिसाब से चलाने की बात कर रहे थे, अब फँस गए तो कह रहे हैं कि आप सीधे-सादे संत हैं? क्या ये चालाकी नहीं है और क्या संतों को ऐसा करना चाहिए?
नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता। वैसे संत इतने सीधे-सादे भी नहीं होते। अगर हो जाएंगे तो फिर उन्हें कौन मानेगा, कौन पूछेगा?
और ये पहली बार आपने नहीं किया है। आप पहले भी नरेंद्र मोदी का समर्थन कर चुके हैं। बीजेपी और संघ के विचारों का समर्थन कर चुके हैं?
हाँ, कर चुका हूँ। देखिए, अब जब आप इतना ज़ोर दे रहे हैं तो मैं आपको बता दूँ कि धर्म की भी एक राजनीति होती है और संत-महात्मा भी राजनीति करते हैं। उन्हें भी सत्ता चाहिए होती है भले ही वह धर्म की सत्ता हो। उन्हे भी यश का लालच होता है। इसीलिए वे राजनीति का इस्तेमाल भी करते हैं और इस्तेमाल भी होते हैं। खट्टर ने मेरा इस्तेमाल किया मैंने उनका।
तब तो अगर लोग आपकी आलोचना या निंदा करते हैं तो वह भी ठीक है?
लोगों को जो करना है वे करें...मैं तो अपने मार्ग पर चलता रहूंगा।
ये बताइए कि आपके वचन कड़वे ही नहीं हैं, बल्कि उनमें कटुता भी है। आप दूसरे समुदायों की भावनाओं को आहत करते हैं, आप दूसरे देश पर नकारात्मक टिप्पणियाँ करते हैं। क्या ये सब पब्लिसिटी स्टंट का हिस्सा है?
भाई ये मीडिया का युग है। अब मंदिरों में प्रवचन देने से नहीं चलता। अब टीवी पर, मीडिया में आना बहुत ज़रूरी है। इसलिए मैं भी करता हूँ।
क्या यश लोभ पाप नहीं है, जिसका जैन धर्म में निषेध है?
हाँ है, लेकिन मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि मैं तो नया जैन धर्म बना रहा हूँ।
लेकिन कहीं आप जैन धर्म को और विकृत न कर दें?
ये तो समय बताएगा। मुझे जो उचित लगता है मैं कर रहा हूँ।
तरूण सागर जी कुछ-कुछ खीझने लगे थे और मैंने देखा कि आसपास जमा उनके अनुयायी मुझे क्रोधित नज़रों से घूर रहे हैं। उनका अहिंसा से विश्वास उठे इससे पहले मैंने निकल लेना उचित समझा।
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
वैधानिक चेतावनी - ये व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया काल्पनिक इंटरव्यू है। कृपया इसे इसी नज़रिए से पढ़ें।