सरकार ने ऐलान किया है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली सार्क देशों के वित्तमंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने इस्लामाबाद नहीं जाएंगे। इसे पाकिस्तान के प्रति सरकार के कड़े क़दम के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। लेकिन क्या सचमुच में ऐसा माना जा सकता है?
निश्चय ही ये एक कड़ा क़दम है, मगर समझदारी भरा नहीं। ऐसा इसलिए कि ये कोई द्विपक्षीय वार्ता नहीं थी। इसमें पाकिस्तान से बातचीत नहीं होनी थी और न ही दोनों के आपसी मसलों पर विचार-विमर्श होना था। इसका एजेंडा सभी सदस्य देशों से जुड़ा हुआ था और बेहद महत्वपूर्ण था। ये समूचे दक्षिण एशिया के आर्थिक विकास से जुड़ा हुआ था और उसे अनदेखा करना या कम महत्व देना संकुचित दृष्टि का परिचायक है।
इस लिहाज़ से वित्तमंत्री को इसमें जाना चाहिए था। उन्हें पाकिस्तान से आपसी मदभेदों को बीच में नहीं लाना चाहिए था। ये परिपक्व विदेश नीति का लक्षण नहीं है और सरकार के बचकानेपन को ही दिखाता है। इससे पड़ोसी देशों और विश्व बिरादरी को अच्छा संदेश कतई नहीं जाएगा।
पाकिस्तान के संबंध में सरकार अपने कड़े रुख़ का पहले ही इज़हार कर चुकी थी और वह काफी था। हालाँकि रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर का ये बयान अकलमंदी से परे था कि पाकिस्तान नरक है और नरक में कौन जाना चाहेगा। लेकिन उससे स्पष्ट हो गया था कि अब इस सरकार का कोई मंत्री, नेता पाकिस्तान नहीं जाएगा। जेटली की पाकिस्तान यात्रा का रद्द होना भी उसी समय तय हो गया था।
विडंबना ये है कि जेटली तो बकौल पर्रिकर नरक नहीं जा रहे हैं, मगर अफसरों को भेज रहे हैं। क्या जो देश मंत्रियों के लिए नरक है, वह अफसरों के लिए स्वर्ग हो सकता है? अगर आपको पाकिस्तान में क़दम रखना ही पाप लगता है तो फिर दूसरों को आप कैसे ऐसा करने को कह सकते हैं? निश्चय ही वहाँ जाने वाले अफसर मज़ाक का पात्र बनेंगे।
वैसे भी पाकिस्तान जाकर जेटली भारत के पक्ष को और भी अच्छे ढंग से रख सकते थे। भारत सदस्य देशों को बता सकता था कि पाकिस्तान का आतंकवाद समर्थक रुख़ क्षेत्र के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी अड़चन बन रहा है। मगर अपनी बचकानी हरकत से उसने ये मौक़ा पाकिस्तान के लिए छोड़ दिया है। अब वह इसे अपने पक्ष में भुना सकता है।
जेटली खुद “ नरक”नहीं जाएंगे, मगर अफसरों को भेजेंगे
Mr. Jaitley will not go to "Hell" but he will send his officials
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