न्यायाधीश हर पेशी पर उनसे पूछते रहे कि क्या आप अपना अनशन खत्म कर रही हैं और हर बार वह न में जवाब देती रहीं- 'अई चरा हेंबेगी खोंग्जंग हंदोक्लाई..' पांच सौ बार से ज्यादा..जी हां , पांच सौ बार से अधिक वह इस बात को दोहरा चुकी थीं, और हर बार फिर अगले पंद्रह दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दी जाती रहीं, न्यायिक प्रक्रिया के अधीन । लेकिन जिस मानवीय न्याय के लिए सोलह साल तक वे लड़ती रहीं, दुनिया भर में नजीर बन चुके अपने अहिंसक सत्याग्रह की लौ जलाए रहीं, वह अभी भी नहीं मिल पाया।
इतने साल तक इरोम शर्मिला अपनी मां से भी जी भर कर नहीं मिल पाईं। अब उन्होंने बोध किया है कि वह मानवीय लड़ाई अकेले अहिंसक सत्याग्रह से शायद नहीं जीती जा सकती, उसके लिए राजनीतिक सत्ता भी हाथ में होनी चाहिए। इसलिए सोलह वर्षों के सुदीर्घ संघर्ष के बाद अब उन्होंने नए सिरे से अपनी आवाज को पुरअसर बनाने का फैसला किया है।
एक नजरिए से देखें तो अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी इरोम शर्मिला चानू के इस अतुलनीय आंदोलन के सामने बौना पड़ गया है। अन्ना के आंदोलन में ,जहां देश के लाखों-लाख लोगों ने कंधे से कंधा मिला कर सत्ता की चूलें हिलाईं, वहीं अकेली शर्मिला निर्बल जनता की आवाज बन गई। आतंकवाद के खिलाफ जरूरी बताए जा रहे बर्बर नतीजों वाले कानून को खत्म करने की अटल प्रतिज्ञा के साथ। करारा तमाचा जड़ दिया आतंकी-बर्बरता के जवाब में की जाने वाली सरकारी-बर्बरता पर। एक ऐसा जवाब जिसने बता दिया कि हर समस्या का निराकरण केवल सैनिक ताकत से करने का मंसूबा सही नहीं है। उन्होंने ठान लिया था कि बंदूकों के बल पर जीने का अधिकार नहीं छीनने देंगे। जंतर मंतर के धरनेदारों को इंफाल में जा जमने को मजबूर कर दिया। भ्रष्टाचरण का कहीं अधिक नंगा नाच इस सुदूर प्रांत में खेला जा रहा है।
दुर्भाग्य से अहिंसक आंदोलन के इस बेमिसाल अभियान को राष्ट्रीय मीडिया ने हाल के कुछ समय को छोड़ खास तवज्जो नहीं दी। जिस तरह अन्ना का आंदोलन महिमामंडित किया गया उसका दसवां हिस्सा भी राष्ट्रीय मीडिया ने पीड़ित मानवता के लिए किए गए इरोम शर्मिला के इस अनहद नाद को देश-दुनिया को सुनाने के लिए नहीं किया।
अब दावे भले कोई कितने भी कर ले। सच तो यही है कि बार-बार सुन कर भी इरोम शर्मिला की आवाज को दिल्ली ने अनसुना किया।
यूं ऐसे अत्याचार अन्य कई जगहों पर भी हुए हैं, मणिपुर में भी पहली बार नहीं हुआ था। लेकिन पहली बार मां दुर्गा वहां रूप बदल कर आई थी- शांति दूत इरोम शर्मिला चानू की शक्ल में। 2 नवंबर 2000 को इफाल के पास मलोम कस्बे में दस लोग बस के इंतजार में खड़े थे। तभी अचानक मृत्युदूत बन पहुंचे असम रायफल्स के जवानों ने बिना चेतावनी दिए दसों को गोलियों से भून डाला। दो बुजर्ग महिलाएं एल, इबेतोमी और सिनम चंद्रमणि भी उस बर्बरता की भेंट चढ़ी थीं।
उस अकल्पनीय नृशंशता ने कवि हृदय पत्रकार इरोम शर्मिला को झकझोर कर रख दिया था। दो दिन तक वह बेचैन रही, तीसरे दिन इस घटना के लिए आधार बने सशस्त्र बल विशेषाधिकार (संशोधित) अधिनियम के खिलाफ अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गई। अनशन पर बैठी शर्मिला ने अपनी मां से कह दिया कि जब तक यह काला कानून खत्म नहीं हो जाता वह भोजन-पानी ग्रहण नहीं करेगी और उससे नहीं मिलेगी।
देश के बहुत से लोगों को अभी भी शायद यह जानकर हैरत हो कि अफ्स्पा के नाम से कुख्यात यह खास कानून आतंकवाद के खात्मे के नाम पर केवल मणिपुर और जम्मू- कश्मीर में लागू है। जैसे कि यहां इसके बिना सरकार का रुतबा कायम नहीं रह सकता। यह कानून सुरक्षा बलों को अधिकार देता है कि वह संबंधित इलाके में कहीं भी किसी भी समय किसी के भी घर या संस्थान आदि में बगैर वारंट या बिना कारण बताए घुस तलाशी अथवा सैनिक कार्रवाई कर सकता है, किसी को भी बिना चेतावनी गोली मार सकता है, उस पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती ।
शर्मिला अनशन के तीसरे दिन ही गिरफ्तार कर ली गई थी। तब से लेकर पूरे सोलह साल तक उन्होंने एक नहीं टूटने वाला सिलसिला बनाए रखा। इतने समय तक शर्मिला ने मुहं से भोजन नहीं किया। पुलिस उन्हें पकड़ कर इंफाल के सरकारी अस्पताल में ले जाती, नाक के जरिए उन्हें जबरन तरल आहार दिया जाता। फिर निश्चित समय बाद अदालत मेें पेश किया जाता और फिर अनशन जारी रखने पर वही प्रक्रिया दोहराई जाती रही। एक-दो हफ्ते नहीं पूरे 16 वर्षों यह सिलसिला चलता रहा। नाक पर टेप लगा कर चिपका रखी गई सलाइन एक तरह से शर्मिला की पहचान बन गई थी।
इतने वर्षों तक स्वाभाविक रूप से आहार नहीं ग्रहण करने के कारण शर्मिला किस प्रकार से स्वाभाविक ढंग से भोजन का स्वाद ले पाएंगी, यह भी एक अहम सवाल बन चुका है।