केंद्र में 2014 में भाजपा की सरकार आने के बाद से कट्टर ब्राह्मणवादी ताकतों की जिस तरह से गतिविधियाँ सामने आईं, उनकी परिणति दलित आंदोलनों के रूप में सामने आई हैं। पिछले दो सालों में आरएसएस और उसके समर्थक संगठनों ने जिस तरह से समाज के वंचित तबकों को निशाना बनाया, उसकी प्रतिक्रिया में हुए आंदोलनों से दलित नेतृत्व उभरना भी शुरू हुआ है, लेकिन बीच-बीच में बड़ी संभावनाएँ जगाने के बाद भी अब तक कोई स्पष्ट नेतृत्व उभरता नहीं दिखा और न ही आंदोलनों की कोई स्पष्ट दिशा ही दिखी है।
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में जब पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला ने आत्महत्या की तो सोशल मीडिया के दम पर मामला राष्ट्रीय स्तर पर भी उछला और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। एक समय ऐसा लगा कि ये आंदोलन राष्ट्रीय स्वरूप ले सकता है और देश की राजनीति को अलग दिशा दे सकता है, लेकिन तब जेएनयू में देश के खिलाफ लगे नारों का मामला इस तरह से उछला कि धीरे-धीरे हैदराबाद का आंदोलन पार्श्व में चला गया।
रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के विरोध में देश के कई विश्वविद्यालयों में धरना-प्रदर्शन होने लगे थे। नेतृत्व के लिए रोहित वेमुला भले ही मौजूद नहीं था, लेकिन समान प्रताड़ना के शिकार हुए उसके साथी तो मौजूद थे। डोंथा प्रशांत, विजय कुमार, शेषैया चेमुडगुंटा और सुकन्ना वेलपुआ भी रोहित वेमुला के साथ हॉस्टल से निकाले गए थे और सामाजिक बहिष्कार के शिकार हुए थे।
ये चारों छात्र रोहित के ही प्रतिनिधि थे, और अगर सुविचारित ढंग से किसी आंदोलन को रूपरेखा दी जाती तो ये चारों उसके नेतृत्व के रूप में स्थापित हो सकते थे या किए जा सकते थे। रोहित की आत्महत्या कोई पहला मामला नहीं था और इस तरह के मामले लगातार होते रहते हैं, लेकिन कुछ दिनों की चर्चा के बाद भुला दिए जाते हैं। इस तरह से इस आंदोलन में राष्ट्रीय अपील थी, लेकिन किसी तरह से संगठित आंदोलन की रणनीति के अभाव में ये आंदोलन धीरे-धीरे खत्म होने लगा।
हालाँकि, रोहित की माँ राधिका वेमुला और मित्र प्रशांत लगातार आंदोलन को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, और दलित विचारक उन्हें समर्थन दे भी रहे हैं, लेकिन आंदोलन में धार नहीं बन पा रही है।
इसी आंदोलन को सहारा देने के नाम पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संगठनों ने भी प्रदर्शन शुरू किए, लेकिन वे जान-बूझकर या संघ के जाल में ऐसे फँसे कि वे हैदराबाद के आंदोलन को उग्र करने के बजाय, उसे पार्श्व में धकेलने में ही सहायक हुए। जेएनयू के वामपंथी नेता खुद को स्थापित करने में लग गए और रोहित मामले पर लंबे समय तक चुप्पी साधे रहा मीडिया जेएनयू के क्रांतिकारियों के लंबे-लंबे भाषण लाइव दिखाने लगा और घंटे-घंटे भर के एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिखाने की होड़ में लग गया।
एक नेतृत्व तो जेएनयू से उभरता दिखा, लेकिन वो नेतृत्व दलित नहीं था और न ही ओबीसी या अनुसूचित जनजाति का था। भारतीय वामपंथियों के आम चरित्र की तरह ही इनको दुनिया भर के मुद्दे भी संभालना प्रिय लगता है और ऐसे में दलितों के मुद्दे पीछे छूटना शुरू हो गए। अब अगर ये नेतृत्व रहता भी है तो भी उससे जाति-व्यवस्था पर कोई चोट पहुँचेगी, ऐसा नहीं लगता।
हैदराबाद की घटना के अलावा देश भर में बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों पर भी हमलों की घटनाएँ हुईं। कई साहित्यकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों ने अपने पुरस्कार वापसी करके विरोध दर्ज कराया। ये भी कोई सुसंगठित आंदोलन नहीं था और दलित इस मसले से सीधे नहीं जुड़े थे। स्वाभाविक है, इसमें भी दलित नेतृत्व के उभरने के आसार नहीं थे।
इन घटनाओं के साथ-साथ नोएडा में गौमांस रखने के शक में अखलाक नाम के मुस्लिम की हत्या से शुरू हुआ गौ-आतंकवाद देश के कई इलाकों में फैला और इसकी चपेट में मुस्लिमों के साथ-साथ दलित भी आए। गौहत्या के शक में मारपीट की घटनाएँ तो कई जगह हुईं, लेकिन मामले ने तूल तब पकड़ा जब गुजरात के ऊना में मृत गायों की चमड़ी उतार रहे कुछ दलितों को सरेआम मारा पीटा गया और कार से बाँधकर शहर में घुमाया गया।
गुजरात में आम आदमी पार्टी से जुड़े कुछ लोगों ने इसे दलित अस्मिता से जोड़कर एक आंदोलन का रूप दिया। ये आंदोलन कुछ सुसंगठित भी था और इसमें राज्य के कई दलित और सामाजिक संगठनों का एक मोर्चा भी बना।
गुजरात के दलित आंदोलन में जिग्नेश मेवानी के रूप में एक नेता भी उभरकर सामने आया। हालाँकि उन्होंने आरंभ में अपने आम आदमी पार्टी के कनेक्शन को चर्चा में नहीं आने दिया, जिससे उन्हें कुछ स्वीकार्यता भी मिली।
बाद में जब इस बात को लेकर बार-बार सवाल उठाए जाने लगे तो जिग्नेश ने कुछ चिढ़कर आम आदमी पार्टी से अपने संबंध खत्म करने का भी ऐलान कर दिया। इसके बाद लगा कि अब ये आंदोलन कुछ स्वतंत्र दिशा लेकर आगे बढ़ेगा।
जिग्नेश मेवानी ने गुजरात के दायरे से बाहर निकलने की भी कोशिश की है, लेकिन विचारधारा के रूप में वे कोई स्पष्ट लाइन लेने में अब तक सफल नहीं दिखे हैं। आम आदमी पार्टी के नेता केजरीवाल की तर्ज पर वे हर विचारधारा को साथ लेकर चलने की नीति अपना रहे हैं।
जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठनों के सवर्ण नेताओं का भी वे बराबर साथ ले रहे हैं, और उन्हें मंच पर बराबर का स्थान भी दे रहे हैं। यहाँ वो यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके आंदोलन और मेहनत की बल पर ये वामपंथी अपना नाम चमकाने में लगे हैं।
कुछ लोगों को तो ये आशंका भी होने लगी है कि कहीं गुजरात का आंदोलन वामपंथी सवर्ण नेता हाइजैक न कर लें। ऐसा न भी हो, तब भी जिग्नेश अब हरियाणा, राजस्थान और दूसरे प्रदेशों में भी अपनी गतिविधियाँ तेज करने का ऐलान कर चुके हैं, जबकि दलित अस्मिता पदयात्रा या आजादी कूच के बाद उनकी रैलियों में भाग लेने वाले दलितों की गुजरात में मार-पिटाई और प्रताड़ना हो रही है।
जब गुजरात के दलितों को संरक्षण की ज़रूरत है, तब जिग्नेश राजस्थान में मनुस्मृति जलाने का कार्यक्रम बना रहे हैं। यही कारण है कि पैदा हुए शून्य को भरने के लिए कुछ अन्य दलित संगठन और नेता गुजरात में सक्रिय हुए हैं।
कुल मिलाकर, गुजरात के दलित आंदोलन में भारी संभावनाएँ होते हुए भी नेतृत्व ने अब तक उनके सही तरह से दोहन की क्षमता नहीं दिखाई है। ऐसे में दलित अब भी सक्षम नेतृत्व और स्पष्ट दलित तथा सामाजिक न्याय की दिशा की तलाश में लगे दिखते हैं।
दलित आंदोलन : नेतृत्व और दिशा की तलाश
Written by-महेंद्र नारायण सिंह
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