इस दिशाहीन और दिखावटी यात्रा से न कुछ होना था और न हुआ


इसमें किसी को कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर से क्यों खाली हाथ वापस लौट रहा है। उसे ऐसे ही लौटना था। इस तरह की सर्वदलीय यात्राओं का यही अंजाम होना था। पहले भी यही हुआ है और आगे भी होगा।

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प्रेस कांफ्रेंस में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ठंडा और पत्थर जैसा चेहरा बता रहा था कि सरकार की बातचीत में कोई दिलचस्पी है ही नहीं, वे केवल औपचारिकता निभाने आए हैं। वैसे भी उनके मुताबिक तो ये यात्रा केवल हालात का जायज़ा लेने के लिए थी। इसका उद्देश्य बातचीत के लिए माहौल बनाना नहीं था, घाव पर मरहम लगाना नहीं था।




इसीलिए उन्होंने चार सांसदों द्वारा अलगाववादियों से बातचीत करने की कोशिशों से भी सरकार को अलग कर लिया। इससे यही साबित होता है कि बातचीत के पुल बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। और तो और उनकी सरकार ने राज्य सरकार को भी अपनी तरफ से अलगाववादियों को वार्ता का न्यौता भेजने से मना कर दिया था। यही वजह है कि मेहबूबा मुफ़्ती को पीडीपी नेता के तौर पर ऐसा करना पड़ा।

राजनाथ भले ही कह रहे हों कि हमारे दरवाज़े ही नहीं रौशनदान भी खुले हुए हैं, मगर जब केंद्र एवं राज्य सरकार का रवैया इतना नकारात्मक हो तो कौन बातचीत में हिस्सा लेना चाहेगा? ये दूसरे पक्ष का अपमान भी है और साफ संकेत भी कि हमारी आपमें कोई दिलचस्पी नहीं है, हाँ अगर आपकी गरज़ हो तो आ जाओ, हम आप पर मेहरबानी करने के लिए मिल-बैठ लेंगे।

अब अलगाववादी धड़ों की कौन सी गरज़ है इस समय जो इस तरह से बुलाए जाने पर चले आएँ? इस समय माहौल उसके पक्ष में है। घाटी गुस्से से उबल रही है, कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो रहा है और इसमें संदेह नहीं कि केंद्र सरकार भी दबाव में है। ऐसी सूरत में वे दबाव में बात क्यों करेंगे? उल्टे वे तो बातचीत के लिए शर्तें रखेंगे।

वैसे उनकी भी मजबूरियाँ है। वे अगर सरकार के इस तरह के बुलावे पर बात करने लगेंगे तो जो संदेश जाएगा वह उनके लिए अच्छा नहीं होगा। ये भी संभव है कि आंदोलन उनके हाथ से फिसलकर पूरी तरह से मिलिटेंट के हाथों मे चला जाए। इसलिए ये लाज़िमी है कि वे बातचीत की मेज़ पर बैठने के पहले सरकार से कुछ आश्वासन चाहें।




केंद्र सरकार की अपरिपक्वता से उलट सीपीआई, सीपीएम और जेडीयू के सांसदों ने हुर्रियत के नेताओं के दरवाज़े खटखटाकर समझदारी दिखाई है। भले ही उन्होंने दरवाज़े नहीं खोले और उन्हें बिना मिले लौटना पड़ा, मगर ये संदेश तो गया ही कि इस मुल्क में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके घर आकर उन्हें सुनना चाहते हैं, बात करना चाहते हैं। उनकी इस आस का बना रहना देश हित में बहुत ज़रूरी है।

इसमें संदेह नहीं कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने के लिए सरकार अनिच्छा से तैयार हुई थी और ये उसका दिखावटी क़दम था। इसीलिए उसमें इसको लेकर कोई उत्साह नहीं था और ये उसके रवैये में बार-बार दिखलाई दिया। उसने इस यात्रा के लिए ढंग से योजना तक नहीं बनाई। इसीलिए ये एक दिशाहीन यात्रा साबित हुई।

केंद्र सरकार के इस उदासीन रवैये के अलावा भी इस यात्रा से कोई ख़ास उम्मीद किसी को नहीं थी। जिस तरह के हालात वहाँ है और बना दिए गए हैं, उनके मद्देनज़र तुरंत कुछ होना संभव ही नहीं था। इस पर भी अगर कोई उम्मीद कर रहा था तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रह रहा था। वादी में स्थितियाँ बहुत ज़्यादा बिगड़ चुकी हैं, जबकि उनको सुधारने के लिए कोशिशें न के बराबर की गईं।

अभी भी सरकार ने बयानों के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो समस्या के राजनीतिक समाधान की संभावनाओं को खोलने में सहायक साबित हो। उसके रुख़ से यही लगता है कि वह ताक़त के ज़ोर पर ही भरोसा कर रही है और उसी नीति पर चलेगी। हाँ दिखाने के लिए कभी-कभार छोटे-मोटे क़दम उठाते हुए उसे ज़रूर देखा जाएगा। सर्वदलीय यात्रा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।



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