न्यूज़ चैनलों पर दो अक्टूबर का नज़ारा अद्भुत था। सब पर सफ़ाई किसी सनक की तरह सवार थी। कोई पाँच सितारा होटल में सेलिब्रिटियों का जमावड़ा लगाकर सफ़ाईगीरी झाड़ रहा था तो कोई समंदर के किनारे या आकर्षक लोकेशन पर गणमान्यों का मजमा लगाए हुए था। सुंदर-सुंदर चेहरे, मीठी-मीठी बातें। बीच-बीच में गाना-बजाना और मनोरंजन के टुकड़े भी। उड़ी हमले के बाद देशभक्ति का दौरा प़ड़ा हुआ है सो उसका भी तड़का। यानी टीआरपी का कोई नुस्ख़ा, कोई फार्मूला छूटे न। दर्शक ज़रूर आए और आ जाए तो बचकर जाने न पाए।
टीआरपी तो चैनलों की जीवन-धारा है इसलिए वह तो उन्हें चाहिए ङी थी, मगर इस समवेत गान का मक़सद इतना सा ही नहीं था। एजेंडे में सबसे ऊपर थी सत्ता की चाकरी। स्वच्छता अभियान तो बस एक मुखौटा था। इसीलिए दिन तो था गाँधी जयंती का मगर कीर्तन हो रहा था प्रधानमंत्री मोदी का। सबको साबित करना था कि सबसे वफ़ादार वही है। वही उनके विचारों को, दर्शन को, कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में प्राणपण से लगा हुआ है। और ये एजेंडा चैनलों का भर नहीं था, बल्कि कार्पोरेट जगत का भी था। वे भी अपनी धनशक्ति के बल पर अपनी हाज़िरी दर्ज़ करवा रहे थे। सब स्वच्छता अभियान के प्रायोजक बने हुए थे। और बनें भी क्यों न। उनका तो सब कुछ उन्हीं पर निर्भर है। नीतियों में एक छोटा सा बदलाव किसी के भी दिन अडानी की तरह फेर सकता है।
लेकिन अगर दर्शकों के नज़रिए से देखा जाए तो स्वच्छता अभियान के नाम पर चैनलों पर कूड़ा फैला हुआ था। वह बदबू मार रहा था। दृश्यात्मक सुंदरता उसकी बदसूरती को छिपा नहीं पा रही थी। पैकेजिंग ज़रूर चमकदार थी मगर कंटेंट की कालिख चारों तरफ से रिस रही थी। ये कालिख थी चापलूसी की, अधकचरेपन की, स्वच्छता को लेकर बनाई गई संकुचित समझ की। देश के चंद संपन्न, सभ्य-सुसंस्कृत जन गंदगी के नीचे बजबजाती ग़रीबी को नहीं देख पा रहे थे, जो कि उसका मूल कारण थी। शायद वे देखना भी नहीं चाहते थे, इसीलिए उन्होंने मलिन बस्तियाँ कार्यक्रम के लिए नहीं चुनीं थीं। वे चुन लेते तो मखमली कालीन पर टाट के पैबंद लगते। पूरी शोभा बिगड़ जाएगी। इसलिए उनका नेपथ्य में ही रहना अच्छा या अगर बहुत ज़रूरत हुई तो कुछेक झलकियाँ काफी हैं।
हक़ीक़त तो ये है कि हमारा मीडिया महापाखंडी है। वह मलिन बस्तियों की ओर जाना ही नहीं चाहता। उसे गंदगी और गंदी जगहों पर रहने वाले गंदे चेहरों से सख़्त नफ़रत है। वह उन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर पाता। अगर वे मर रहे हों तो भी। सरकार और कार्पोरेट प्रायोजित स्वच्छता अभियान के आगे और पीछे के छह महीने के कंटेंट का विश्लेषण कर लीजिए, सचाई सामने आ जाएगी। अगर आप सामाजिक सरोकार रखते हैं तो आपको गहरा सदमा लगेगा। सोचिए यदि गंदगी को लेकर हमारा मीडिया इतना चौकन्ना तथा गंभीर रहे तो कम से कम महानगरों में ही सही डेंगी और चिकेनगुनिया जैसी बीमारियाँ ही नहीं होंगीं। लेकिन वह अभियान नहीं चलाता क्योंकि बिना प्रायोजकों के कैसा अभियान और कैसे सरोकार? और प्रायोजकों के लिए भी तो कसौटी यही है। अगर उनकी छवि नहीं निखरती और सत्ताधारी खुश नहीं होते तो वे क्यों चलाएं अभियान?
सबसे बड़ी विडंबना तो ये है कि चैनलों को अपना कूड़ा-करकट दिखलाई नहीं देता। तमाम चैनल कूड़ा-करकट का अंबार नहीं हैं तो क्या हैं? वे निरंतर इतना कूड़ा पैदा कर रहे हैं कि समाज का मस्तिष्क कूड़ेदान में तब्दील हो चुका है। इस गंद की वजह से तरह-तरह की जानलेवा एवं संक्रामक बीमारियाँ फैल रही हैं, मगर उन्हें इसकी परवाह ही नहीं है। वे मस्त हैं सत्ता और कार्पोरेट की चापलूसी में, उनकी जी हुज़ूरी में। इसलिए उनसे कोई उम्मीद रखना भी बेकार है। वे बंधुआ बन चुके हैं, उन्होंने ग़ुलामी स्वीकार कर ली है।
एक ज़माना था जब केवल दूरदर्शन हुआ करता था। प्रसारण के क्षेत्र मे उसका एकाधिकार था और हम सरकारों के कभी पाँच सूत्री तो कभी बीस सूत्री कार्यक्रमों के बारे में देखने-सुनने को अभिशप्त रहते थे। प्रायवेट चैनलों के आने के बाद कहा गया कि अब दर्शक दूरदर्शन का बंधक नहीं रह गया। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज पूरा मीडिया स्वेच्छा से दूरदर्शन हो गया है। वह दूरदर्शन का महाविस्तार या कहें विराट रूप बनकर रह गया है। ऐसे में वह वही करेगा जो कर रहा है यानी कूड़ा फैलाएगा और कूड़े के ढेर में तब्दील हो जाएगा।
प्रायोजित स्वच्छता अभियानों का कूड़ा-करकट
Garbage of sponsored cleanliness drive in media
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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