मीडिया की आँखों पर काला परदा पड़ा हुआ है। वह ठीक से नहीं देख पा रहा-न खुद को न किसी और को। इसीलिए उसे दिखलाई नहीं दे रहा कि सरकार द्वारा थोपी गई नोटबंदी के पीछे क्या राज़ छिपे है। हालाँकि बहुत कुछ साफ़ है। स्पष्ट है कि काले धन को निकालने के क्रांतिकारी क़दम की आड़ में कौन से ग़ुल खिलाए जा रहे हैं। सरकार किन्हें बचा रही है और किन पर दबाव बना रही है। वह तो सरकार के सुर-ताल पर नर्तन कर रहा है। अर्धनग्न कपड़ों में सजी-धजी चियर लीडर की तरह कूल्हे मटका रहा है। उसे अपनी ये अश्लीलता भी दिखलाई नहीं दे रही। इतनी मौतों और घंटों लाइनों में लगे आम लोगों की बेबसी को अनदेखा करके वह बड़ी ही बेशर्मी से तालियाँ बजाकर सरकार को शाबाशी दे रहा है।
शायद मीडिया को लगता है कि देश युग परिवर्तन की दहलीज़ पर खड़ा है और युग निर्माता की हौसला अफ़जाई ही उसका एकमात्र कर्तव्य है। उसे सचाई की तह में जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है, कोई ज़रूरत नहीं है। और हो भी क्यों? उसमें उसे कोई फ़ायदा नहीं नज़र आता, बल्कि ऐसा करने के अपने ख़तरे भी हैं। कहीं युग निर्माता नाराज़ हो गया तो उसका कारोबार बंद हो जाएगा, मुनाफ़ा कम हो जाएगा, मुसीबतों की बारिश होने लगेगी। आख़िर वह भी तो शीशमहल में रहता है। पत्थर चलाने से पहले उसे सौ बार सोचना पड़ता है। काले-सफ़ेद के खेल में वह भी तो शामिल है। वह भी टैक्स की चोरी करता है। नेताओं और कारोबारियों के काले धन से चलता है। काला धन की सप्लाई रुक जाए तो उसकी साँसें थम सकती हैं। रक्त प्रवाह रुक सकता है, उसकी सेहत बिगड सकती है। भला ऐसा जोखिम वह क्यों उठाएगा?
ये कोई छिपी बात तो है नहीं कि पूरा का पूरा मीडिया काले धन के कीचड़ में लोटपोट हो रहा है। अगर कोई ईमानदार जाँच एजंसी मीडिया संस्थानों के खाते ढंग से खँगाले तो सबकी पोल-पट्टी खुल जाएगी। जगज़ाहिर हो जाएगा कि जितना काला धन दूसरे धंधों में है उतना मीडिया में भी है। जितना भ्रष्टाचार दूसरे धंधों में लगे लोग करते हैं उतना ही मीडिया-मालिक भी करते हैं। दूसरों की तरह वे भी अपने कर्मचारियों यानी पत्रकारों को इस सबके लिए इस्तेमाल करते हैं। युग निर्माता को ये सब अच्छे से पता है। वह जानता है कि मीडिया की जान किस तोते में बसती है, इसलिए उसकी गर्दन मरोड़ने के लिए वह इसका इस्तेमाल करता है। उसका हाथ बढ़े इससे पहले ही वह थरथराने लगता हैं। डेमोक्रेसी, मीडिया की स्वतंत्रता, संविधान आदि सब भूल जाता है और प्राण-प्रण से युग निर्माता के स्तुति गान में जुट जाता है।
कभी तो ऐसा समय आएगा ही जब लोग मीडिया की भूमिका की जाँच करते हुए उसके अर्थतंत्र की पड़ताल करेंगे। और जब वह ऐसा करेंगे तो मीडिया की पॉलिटिकल इकोनॉमी में घुसते ही उसका चरित्र उनके सामने उजागर हो जाएगा। ये जो सत्ता के साथ जुगलबंदी करके वह तथ्यों को छिपा और गढ़ रहा है, उसकी पोल खुल जाएगी। सबको पता चल जाएगा कि काले धन के ढेर पर खड़ा मीडिया दरअसल काले धन वालों का रक्षक है। वह उन्हें संरक्षण प्रदान करता है, सुरक्षा कवच देता है। इसीलिए तमाम कारोबारी या तो खुद का मीडिया रखना चाहते हैं या दूसरे मीडिया संस्थानों को वश में रखने की जुगत लगाते हैं। सोचिए जब लोगों को काले धन, सरकार और मीडिया के इन अंतर्संबंधों के बारे में पता चलेगा तो वे क्या करेंगे? ज़ाहिर है कि तब लोग उससे आज से भी ज़्यादा नफ़रत करने लगेंगे। अभी तो उस पर अविश्वास करते हैं, उसे झूठा बेईमान और स्वार्थी बताते हैं, मगर तब शायद हाथों में पत्थर लेकर खड़े हो जाएंगे।
पूरी व्यवस्था एक बड़े ही धोखे का शिकार हो रही है। युग निर्माता ने वाक्जाल रच दिया है और मीडिया उसे तोड़ने के बजाय म़ज़बूत करने में लगा हुआ है। उसके राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकार तेल लेने चले गए हैं और वह युग निर्माता को तेल लगाने में खर्च हुआ जा रहा है। ये काला मीडिया है, लोकतंत्र पर काला धब्बा है। सत्ता की गोद में बैठा ये मीडिया लोकतंत्र का प्रहरी नहीं, पूँजीवादी राजनीति का एक घातक अस्त्र है जो अँधेरा फैलाने के लिए चलाया जा रहा है।
काला धन, काला मीडिया
Black money, black media
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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