अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्र्म्प की मीडिया के प्रति घृणा जगज़ाहिर है। जब से उन्होंने राष्ट्रपति पद की दावेदारी प्रस्तुत की थी तभी से वे मीडिया पर बरस रहे हैं, उस पर ताने कस रहे हैं, उसे बदनाम करने की कोशिश में जुटे हुए हैं। अपनी इस मानसिकता के चलते वे इतने नीचे गिर गए थे कि उन्होंने एक विकलांग पत्रकार की शारीरिक क्षमताओं पर ही व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर डाली थी, जिसके लिए सर्वत्र उनकी घनघोर निंदा भी हुई। लेकिन ट्रम्प जिस मिट्टी के बने हैं वह उन्हें इन हरकतों से बाज नहीं आने देती। इसीलिए एक बार फिर उन्होंने अपनी पहली प्रेस काँफ्रेंस में नई बानगी पेश कर दी। उन्होंने सीएनएन के पत्रकार के प्रश्न का जवाब देने से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि उसका चैनल फेक (फर्जी) न्यूज़ दिखाता है। ऐसा ही सलूक उन्होंने बज़फीड के पत्रकार के साथ भी किया। उन्होंने उसकी वेबसाइट को कूड़ा ही बता दिया।
ट्रम्प मीडिया से इसलिए नाराज़ हैं कि उसने उनकी फ़ज़ीहत का जो अभियान चलाया था वह अभी भी बदस्तूर जारी है। यहाँ तक कि उनके राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी उसने अपना अभियान रोका नहीं था। लेकिन मीडिया के इस रुख़ की वजह खुद ट्र्म्प का चरित्र और उनके ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान रहे हैं। एक तो ट्रम्प का अतीत ही विवादास्पद रहा है, ऊपर से उन्होंने कभी ये परवाह नहीं की कि वे क्या बोल रहे हैं और उसका समाज या देश पर क्या असर पड़ेगा। ऐसे में ये लाज़िमी ही था कि वे मीडिया के निशाना बनते। लेकिन ट्रम्प द्वारा मीडिया को निशाना बनाने की केवल यही वजह नहीं है।
वास्तव में मीडिया को कोसना या उसको संदिग्ध बनाकर खारिज़ कर देना नेताओं और सत्ताधारियों की नई रणनीति बन गई है। वे जानते हैं कि मीडिया की साख रसातल में चली गई है इसलिए उसकी निंदा करके उन बहुत सारे आरोपों से भी बचा जा सकता है जो वाकई में सही हैं। उन्हें ये लगने लगा है कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो जनता भी मान लेगी या नहीं भी मानेगी तो कम से कम उसका यक़ीन उन ख़बरों पर कम हो जाएगा और इससे भी उनका काम हो सकता है। वे मीडिया पर हमला करके उसकी रही-सही विश्वसनीयता को भी नष्ट कर देना चाहते हैं ताकि भविष्य में अगर वे कोई ग़लती करें तो मीडिया के बजाय वे ज़्यादा विश्वसनीय नज़र आएं। इस रणनीति का तीसरा लक्ष्य मीडिया पर दबाव बनाना है जिससे वह उनके खिलाफ़ अभियान को भोथरा कर सके। अगर सत्ताधारी दल किसी अख़बार या न्यूज़ संस्था को निशाने पर ले लेता है तो उसे रक्षात्मक रूख़ अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ता है जैसा कि भारत में भी देखा जा सकता है।
याद कीजिए पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने पत्रकारों को न्यूज़-ट्रेडर के नए नाम से नवाज़ा था। न्यूज़ ट्रेडर यानी ख़बरों के व्यापारी न कि ख़बर लेने और देने वाले। गुजरात दंगों के बाद से मीडिया ने जिस तरह से उनकी छीछालेदर की थी और उनके दावों को वह जिस तरह से लगातार प्रश्नांकित कर रहा था, उसका कोई जवाब उनके पास नहीं था। लिहाज़ा उन्होंने मीडिया को ही भ्रष्ट बताकर खुद की छवि चमकाने का ये हथकंडा चला और वह काफी हद तक कामयाब भी रहा। मीडिया से नाराज़ लोगों ने उनके इस रवैये को भी उचित ही माना। अगर मीडिया की विश्वसनीता होती तो न मोदी ऐसा कर पाते और न ही लोग उनकी बातों का यक़ीन करते।
मोदी की तरह ट्रम्प भी यही कर रहे हैं और अगर उनके अनुयायियों के अलावा बहुत सारे अमरीकी उनका इसमें साथ दें तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन ये बहुत ख़तरनाक़ प्रवृत्ति है। इससे मीडिया और भी कमज़ोर होता है और शासक वर्ग निरंकुश होता चला जाता है। मीडिया के घनघोर विरोधियों को भी ये बात समझ लेनी चाहिए कि मीडिया में हज़ार खामियाँ होने के बावजूद फिलहाल लोकतंत्र में में अवाम के पास अपने विचारों एवं भावनाओं को व्यक्त करने का एकमात्र साधन वही है, इसलिए उसे जहाँ तक संभव हो बचाने की कोशिश होनी चाहिए। इसका मतलब ये है कि मीडिया पर हमला करने वाली हर शक्ति का विरोध होना चाहिए, अब चाहे वह सत्ताधारी हों या फिर कार्पोरेट जगत के महारथी।
ट्रम्प और मोदी का मीडिया
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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